विनय एक्सप्रेस समाचार, जयपुर। व्यंग्यधारा समूह की ओर से रविवार को ‘परसाई और आज का समय’ विषय पर वर्चुअल राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें देश के प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों पद्मश्री डॉ ज्ञान चतुर्वेदी (भोपाल), व्यंग्ययात्रा के संपादक डॉ प्रेम जनमेजय और व्यंग्य आलोचक डॉ सुभाष चंदर (नई दिल्ली) ने प्रमुख वक्ता के रूप में विचार साझा किए।
सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार , उपन्यासकार पद्मश्री डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने कहा कि नामचीन व्यंग्यकार हरिशंकर परसाईं की रचना को जितनी बार पढेंगे अथवा उस पर विमर्श करेंगे तो हर बार कुछ नया पाएंगे, कुछ नया सीखेंगे। हम सोचें कि आखिर परसाई की रचना में ऐसा क्या है ? उनके समकालीन लेखक भी अच्छा लिख रहे थे, उनमें जीवन मूल्य भी थे, सामाजिक सरोकार भी थे। उन्होंने कहा कि परसाई गरीब और वंचितों के लेखक थे । जहाँ तक समय की बात है तो आज भी परसाई का समय है। कालिदास, वाल्मीकि, तुलसी, प्रेमचंद, मार्क्स, समरसोट मॉम, मार्खेज और परसाई शाश्वत लेखक हैं ।वे आज भी प्रासंगिक हैं और सौ साल भी बाद भी रहेंगे चाहे समय कितना ही बदल जाए।
उन्होंने कहा कि परसाई ने दृष्टि देने का काम किया।बेईमानी करके कोई शाश्वत कैसे हो सकता हैं? समय को लेकर जो खांचे आज बना लिए गए हैं, उनका कोई अर्थ नहीं है।रामायणकालीन समय हमारे जीवन को आज भी कहीं प्रभावित कर रहा है। महत्व इस बात का है कि हम लेखन में अपने पलों के प्रति ईमानदार हैं कि नहीं, हम आँखे खोलकर देखते हैं कि नहीं। कवि नरेश सक्सेना की ‘नदी’ कविता का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि वे इसमें नदी को पुल पर से नहीं देखने बल्कि उसमें उतरने औरउसकी गहराई में जाने की बात करते हैं।यही बात परसाई के लेखन में दिखाई देती है।
डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने कहा कि परसाईं से सम्बंधित संस्मरणकारों ने अपने संस्मरणों में स्वयं को महान सिद्ध करने में की कमी नहीं छोड़ी और परसाई से ही गवाही दिलवाई और उन पंक्तियो को टैग लाइन बनाकर प्रचारित किया। ऐसा करने से आज तक कोई लेखक महान नहीं हुआ । लिखते समय सोचें कि आप लेखन के प्रति , अपनी सोच के प्रति ईमानदार हैं कि नहीं, आपको अपने लिखे पर विश्वास है कि नहीं। क्या आप अपनी मौलिकता को कायम रख सकेंगे कि नहीं । परसाई ने अपने समय को समझा . आज किसी में इतना साहस हो तब कोई परसाई की छाया को छू सकता है । लेखक बनना है तो कोई समझौता नहीं करना है, लेखन में मिलावट नहीं करनी है और लिखने के प्रति ईमानदार बने रहना है ।
परसाई संघर्षशील रचनाकार थे और मानते थे कि श्रद्धेय बनाने वालों से भयभीत रहना चाहिए : डॉ.प्रेम जनमेजय
‘’व्यंग्य यात्रा’ के संपादक और नामी व्यंग्यकार डॉ. प्रेम जनमेजय ने कहा कि परसाई का लेखन सागर की तरह है। उसमें अपने समय को देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि जीवन में समय, दुख, प्रेम और त्रासदी मनुष्य के शाश्वत साथी हैं । बकौल चार्ली चैपलिन जिंदगी पास से देखने से त्रासदी है किंतु दूर से देखने में कॉमेडी लगती है। यही स्थिति व्यंग्य की है इसलिए सुशिक्षित मस्तिष्क ही अच्छा व्यंग्य देख सकता है । समय वही है, विरोधी दल और सत्ता दल का समय अलग है। तुलसी, कबीर, सूर को अपने समय में उतना नहीं पहचाना गया जैसा कि बाद में पहचाना गया । समय को पढ़ने और समझने की जरूरत होती है । परसाई के लेखन के शुरू में उनके सामने मोहभंग का समय था। उन्होंने मोहभंग से लड़ने का जज्बा पैदा किया और व्यंग्य का हथियार उठाया।
जनमेजय ने कहा कि उस समय श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी और रवीन्द्र नाथ त्यागी भी लिख रहे थे लेकिन वे उनकी कार्बन कॉपी नहीं थे । उनकी शैली परसाई से अलग थी । समकालीनों ने भी समाज व्यवस्था को लेकर सवाल उठाए थे । जहां तक परसाई के समय का सवाल है तो समय बदल रहा था । समाज गतिशील है और रोज बदल रहा है । हम लेखन में किसी की नकल ना करें । नई पीढ़ी अपने व्यंग्य को नई भाषा और नया रूप दे । परसाई को श्रेष्ठ लिखने के बाद भी किसी प्रकार का अहंकार नहीं था । वे अपने लेखन में सावधानी बरतते थे । नए व्यंग्य लेखकों को यदि कुछ नया लिखना और सीखना है तो परसाई के संग्रह ‘सदाचार का ताबीज’ की भूमिका जरूर पढ़नी चाहिए ।परसाई अपने बाद की पीढ़ी को आतंकित नहीं करते थे । परसाई उन्हें साथ लेकर चलते थे और उन्हें साथी मानते थे । वे खुली सोच रखते थे, उन्हें चापलूसी पसंद नहीं थी ।
डॉ. जनमेजय ने कहाकि परसाई के जाने के बाद उन पर बहुत चर्चा हुई और अन्य लेखकों के मुकाबले सबसे ज्यादा हुई है । उन पर संस्मरण भी बहुत आए हैं जिसमें लेखकों के पुण्य का बखान ज्यादा हुआ है ।वे संस्मरण लेखन से बचते थे क्योंकि उनमें प्रशंसा करनी पड़ती है । परसाई दोस्ताना लेखन से बचते थे । संस्मरण के बहाने अपने आप को प्रोजेक्ट मत करो ।
परसाई के वैचारिक दृष्टिकोण की चर्चा करते हुए डॉ प्रेम जनमेजय ने कहा कि प्रारंभ में परसाई जी समाजवादी सोच रखते थे । परसाई की रचना ‘अकाल उत्सव’ पढ़ने से रोंगटे खड़े हो जाते हैं । परसाई में जो दृष्टि है वैसी दृष्टि मुश्किल से प्राप्त होती है ।उन्होंने समय से मुठभेड़ की और सवाल भी उठाए । अगर हम इस दृष्टिकोण से लिखेंगे तो हमारी दृष्टि भी व्यापक होगी ।
लेखक समाज की परेशानियों से भीतर तक प्रभावित होता है: डॉ. सुभाष चन्दर
वरिष्ठ व्यंग्यकार और आलोचक डॉ. सुभाष चंदर ने कहा कि एक लेखक समाज की परेशानियों से भीतर तक प्रभावित होता है तब उसके आक्रोश की प्रहार के रूप में अभिव्यक्ति होती है । परसाई की रचना अपने इन उद्देश्य में खरी उतरती है । उन्होंने कहा कि परसाई रचनाओं के माध्यम से सामाजिक सरोकारों, जनोन्मुखता, आम आदमी के संघर्षों में साथ खड़े दिखाई देते हैं । वे जनोन्मुख दृष्टि से यह भी देखते थे कि व्यंग्य का हथियार कहीं गरीब और दबे कुचले वर्ग के विपरीत नहीं चला जाए ।
उन्होंने कहा कि परसाईं पर साम्यवादी होने का ठप्पा लगता है लेकिन उन्होंने साम्यवादियों के छल-छद्म के खिलाफ भी खूब लिखा है। इसलिए परसाई अपनी जनोन्मुखता के कारण याद किए जाते हैं । उन्होंने राजनीति, धर्म, सामाजिक पाखण्ड पर निर्ममता से प्रहार किए हैं । प्रसिद्ध विद्वान श्यामसुंदर मिश्र की मानें तो परसाई अपनी जनपक्षधरता,प्रगतिशील और सुविचारित दृष्टि भरे लेखन के कारण विश्व के चार प्रमुख लेखकों में शुमार किए जाते हैं।
संगोष्ठी के प्रारंभ में ‘व्यंग्यधारा’ समूह के प्रमुख वरिष्ठ व्यंग्यकार रमेश सैनी (जबलपुर) ने विषय की रूपरेखा प्रस्तुत की और कार्यक्रम का सञ्चालन भी किया . प्रमुख आलोचक डॉ रमेश तिवारी ने कार्यक्रम में सबका आभार व्यक्त किया । व्यंग्यधारा की इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में राजस्थान से व्यंग्यकार फारूक आफरीदी, बुलाकी शर्मा, प्रभात गोस्वामी के साथ अनूप शुक्ल. संतोष खरे ,शांतिलाल जैन,सुनील जैन राही,अरुण अर्नब खरे,विवेकरंजन श्रीवास्तव सेवाराम त्रिपाठी, डॉ सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, सहित बड़ी संख्या में लेखक जुड़े ।