विनय एक्सप्रेस आलेख । हिंदुस्तान की पहचान हुआ करती थी संयुक्त परिवार प्रणाली ।गत तीन दशक से भारतीय संस्कृति में पाश्चात्य संस्कृति का चलन जोरों पर है, हम आधुनिकता की दौड़ में पारिवारिक रिश्तो को जिस कदर भूलते जा रहे हैं उसे देखते हुए यह कल्पना बेमानी नहीं होगी कि दादा पोता और नाना-नानी के सबसे खूबसूरत रिश्ते भी अंधेरे और गुमनामी में ना खो जाए।संयुक्त परिवारों के उस दौर में परिवार के सदस्यों में प्रेम ,स्नेह, भाईचारा और अपनत्व का एक विशिष्ट माहौल रहता था।
आज के समय हम दो, हमारे दो तक सीमित होते परिवार अंततः एकाकीपन और तनावग्रस्त होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार में जहां बच्चों पर ताऊ- ताई, दादा- दादी ,काका -काकी व भाई- बहनों का हर कार्य में आपसी संवाद बना रहता था।आज वह एकल परिवारों में देखने को नहीं मिल रहा है इस अर्थ युग में जहां माता-पिता दोनों अर्थ अर्जन के कार्य में लगे हैं वहां बच्चों पर ध्यान और ममतामयी दुलार जिसे पाकर बच्चे भावी जीवन में सफल हो ऐसे गुणों से कोसों दूर होते जा रहे हैं।अक्सर माता पिता और उनके छोटे से परिवार में भी आपसी संवाद का ना होना परिवार विघटन का कारण बन रहे हैं यथा आत्महत्या ,घर छोड़ कर जाना, अपने विचारों को थोपने का प्रयास वर्तमान में अधिकांश परिवारों में ये देखने को मिल रहा है।
“गांव की बहू” और “गांव की बेटी “जैसे शब्द तो अब कहानियों में ही बचे हैं ।संभव हो तो संयुक्त परिवार में रहना सीखो अगर ऐसा संभव ना हो तो एकल परिवार में भी अपने सभी परिवारिक सदस्यों को समय दीजिए । अर्थ अर्जन के चक्कर में हम अगर अपने परिवार को ही समय ना दे पाए तो यही अर्थ हमारे लिए अनर्थ बन जाएगा । अंतः अपने पारिवारिक रिश्तो में आ रही दरारों में समय और संवाद नाम की ईंट लगाकर पारिवारिक भवन को मजबूत बनाएं ।
अगर हम अपने परिवार को समय और संवाद दे पाए तो फिर घर में आई चिंता एक की ना होकर पूरे परिवार की चिंता बन जाती हैं और आपसी सहयोग से उस चिंता को सरलता से दूर भी कर सकते हैं।
आज परिवार तेरी जान है ,परिवार के बिना तो पूरा बेजान है ।जी ले हर लम्हा खुशी से उनके साथ, क्योंकि परिवार ही तेरी शान है
–राजेंद्र आचार्य :अध्यापक ,खाजूवाला बीकानेर