सामंती व्यवस्था की प्रतीक शासन की जन सुनवाइयां : राजेंद्र बोड़ा

विनय एक्सप्रेस संपादकीय आलेख।  प्रदेश के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक श्री राजेंद्र जी बोड़ा द्वारा विनय एक्सप्रेस के सुधि पाठकों हेतु  सरकार की जनसुवाईयां विषय पर एक निष्पक्ष आलेख लिखा है, जो पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है :

मुख्यमंत्री अधिकारियों से पंचायत स्तर तक जन सुनवाई की व्यवस्था दुरस्त करने का कहा है। है। ऐसा हाल ही शुरू हुई सरकार की अधिकृत दैनिक “सुजस ई पत्रिका” में प्रमुखता से छपा है। जन सुनवाइयां अब प्रशासन का सामान्य हिस्सा बन चुकी है। मुख्यमंत्री खुद और उनके मंत्री भी जन सुनवाइयां करते हैं। ऐसा कांग्रेस और बीजेपी दोनों की सरकारों में होता आया है। यह बात भी हमेशा ही कही जाती रही है कि अच्छा प्रशासन वह होता है जिसमें आम नागरिक की समस्याएं निचले स्तर पर ही हल हो जाती है। इसके लिए प्रशासन को चुस्त और दुरस्त बनाना पड़ता है। राज्य के कोने कोने में बैठे नागरिकों को अपने साथ हो रहे अन्याय की फ़रियाद लेकर राजधानी क्यों आना पड़े यह बात तो सभी करते हैं किन्तु प्रशासन तंत्र में लगा लापरवाही और रिश्वत के घुन पर प्रभावी अंकुश लगाने की कोई संवेदनशील पहल होती कभी नजर नहीं आती। आम आदमी अपनी फ़रियाद लेकर शासन में बैठे निर्वाचित प्रतिनिधि के पास बड़ी आस के साथ जाता है। आमजन की भावनाओं से खेलते हुए निर्वाचित प्रतिनिधि जनसुनवाइयां करके यह जताते हैं कि वे लोगों की बात सुन रहे हैं। इसे मीडिया ने “दरबार” की संज्ञा ठीक ही दे रखी है। परंतु व्यवस्था तंत्र को ठीक करने में हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि पूरी तरह असफल ही नहीं रहे हैं बल्कि उसे बिगाड़ने में ही अपनी भूमिका निबाही है। अब लगता है उन्हें पुरानी सामंती परंपरा वाले “दरबार” का शौक चढ़ा हुआ है। हमने जन सुनवाइयों के ऐसे दरबारों में आज तक ऐसा नहीं पाया कि वहां आए किसी एक की समस्या पर धीरज और गौर से सुनवाई की गई हो। यदि बात को सुन और समझ लिया जाए तो किसी एक की समस्या का हल ही नहीं होता है बल्कि तंत्र में ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि वैसी समस्या किसी और को स्वतः ही न हो। अफसरों से संवेदनशील होने तथा लोगों की समस्याओं को सकारात्मक रूप से सुलझाने के आह्वान राजनेता लंबे समय से करते आए हैं। ऐसे आह्वान का ज़मीनी स्तर पर किसी ने ध्यान दिया हो कभी नज़र नहीं आया। मुख्यमंत्री भी बाद में यह पता लगाने की कोशिश नहीं करते कि उसके कहने से प्रशासन कितना संवेदनशील हुआ। लोगों की समस्याएं हल करने के लिये बीच-बीच में “प्रशासन आपके द्वार” भी आता है, ज्यादातर ज़मीनों के पट्टे बांटने के लिए। शहरों और गांवों में ऐसे जन सुनवैयों के अभियानों के बाद भी लोगों की परेशानियां बढ़ती ही जाये और हर नई जन सुनवाई में भीड़ कम न हो तो यह सवाल उठना लाज़मी है कि इन सुनवाइयों का क्या औचित्य है? इस सवाल का जवाब खोजने के लिए किसी अनुसंधान की आवश्यकता नहीं है। यह हमारी लोकतान्त्रिक प्रशासनिक व्यवस्था के खोखली हो जाने का नतीजा है। ऊपर से एक ढांचा बना हुआ है मगर अंदर ही अंदर व्यवस्था में ऐसा रोग लग गया है जो उसे पंगू बनाए दे रहा है। भ्रस्टाचार निरोधक विभाग की कार्यवाईयों में रोज ही सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की गिरफ्तारियों से तंत्र के लोगों पर भय का कोई असर नज़र नहीं आता। अनेक ऐसे विभाग हैं जहां रिश्वत लेने-देने का नियम सरकारी किताबों के नियमों से अधिक प्रभावी तरीके से लागू होते हैं।

ब्रितानवी साम्राज्यवाद के विदा होने के साथ ही हमें मिली “स्टील फ्रेम” वाली कार्यपालिका की व्यवस्था अब घटिया “रबर फ्रेम” वाली व्यवस्था में तब्दील हो चली है क्योंकि उसमें राजनीति का चस्का लग गया है। उसे किसी भी तरफ मोड़ा जा सकता है जिसका खामियाजा आम नागरिक को ही भुगतना पड़ता है। कितने नागरिक और पुलिस सेवा के अधिकारी राजनैतिक पार्टियों के उम्मीदवार बन कर जनप्रतिनिधि बन बैठे चुके हैं यह सर्वविदित है। राजनीति ने निष्पक्ष कार्यपालिका को अवसरवादी व्यवस्था में तब्दील कर दिया है। ऐसा राजनैतिक दलों की गिरावट की कीमत पर हुआ है। राजनैतिक दलों तथा उनके नेताओं की गिरावट इस हद तक पहुंच चुकी है कि उनमें अब आम जन की आवाज़ की कोई अहमियत नहीं रह गई है। उनमें नेताओं के समूहों की चलती है खास कर उनकी जो राजनीतिक सत्ता के साथ या उसके पास होते है। सत्ता से बाहर बैठे दलों में भी ऐसा ही होता है और उनमें भी आपसी प्रतिस्पर्धा इस बात की ही होती है कि वे सत्ता पा सकें। सारा खेल कुछ नेताओं के सत्ता पाने और उसे भोगने तक सीमित हो चला है। इसीलिए सारी राजनीतिक सत्ता लोक केंद्रित होने के स्थान पर सत्ता केंद्रित हो चली है। सत्ता पाने के लिए संसदीय लोकतन्त्र में राजनेताओं को आम जन के वोट चाहिए होते हैं इसलिए मतदाता की अहमियत पांच साल में एक बार चुनावों के समय तक सीमित कर देना नए जमाने की राजनीति को रास आता है।

मतदाता को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए राजनेताओं ने अनेकों उपाय सीख लिए गए हैं। बाहुबल और धनबल का चुनावी राजनीति में हमेशा ही महत्व रहा है। पहले बाहुबली और धनपति अपने हित साधने के लिए राजनेताओं की उनकी सत्ता में हैसियत या सत्ता में पहुंच पाने की क्षमता के आधार पर मदद करते थे। मगर अब वे खुद अपने लिए राजनीति में स्थान बना पाने नें सफल हैं। अपराध जगत, पूंजी जगत और कार्यपालिका के लोग आज राजनीति के क्षितिज पर जगमगाते हुए नज़र आते हों तो कोई अचंभे की बात नहीं है। यह इक्कीसवीं सदी की भारतीय राजनीति की नई शैली है।

इस नई राजनैतिक व्यवस्था के परिपेक्ष्य में यदि हम आज की शासन व्यवस्था को देखें तो उसका चरित्र बेहतर तरीके से समझ सकेंगे। इस व्यवस्था में लोक सिर्फ उपभोक्ता है और उसके लिए जो कुछ किया जा रहा है वह उस पर शासन का उपकार है क्योंकि भले ही राजनेता लोक के वोट से सत्ता में पहुंचते हो मगर उनकी प्रतिबद्धता सिर्फ अपने प्रति और उन ताकतों के लिए होती है जिनकी नज़र आम आदमी की जेब पर रहती है। वह जनता जिसकी जेब खाली है उसके लिए इस व्यवस्था में कोई जगह नहीं है। किसी ने ठीक ही कहा है कि “नए निज़ाम में राजा और प्रजा का सामंती रिश्ता फिर बनाया जा रहा है जिसमें प्रजा से अपेक्षा की जाती है कि वह उसके लिए अनुग्रहित हो जो उसे राजा दे रहा है”। इसीलिए ये जन सुनवाइयां लोगों की तकलीफ़ें कम करती हों इसके प्रमाण नहीं मिलते। यदि प्रशासन तंत्र अपने रोज़मर्रा का काम मुस्तैदी से करने और अपने दायित्व संवेदनशीलता से निभाने लगे को अधिकतर समस्याएं पैदा ही नहीं हो। मगर नये – नये वेतन आयोगों की बदौलत मोटे वेतन पाने वालों से कोई यह पूछने वाला नहीं है कि वे यह बताए कि किसी अमुक दिन उन्होंने ऑफिस में क्या काम किया? क्यूं उनकी टेबल पर कोई फाइल महीनों से धूल खाती पड़ी रहती है या अंतर्ध्यान हो जाती है? क्यूं नीचे से ऊपर तक काले पैसों की बंदी बंधी होती है। कुछ समय पहले भ्रष्टाचार के अपराध में गिरफ्तार हुए एक बड़े भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी का यह सार्वजनिक बयान बहुत कुछ कह जाता है कि “मैंने रिश्वत मांगी थोड़े ही है। पैसा जो मिलता है वह तो व्यवस्था है”। यह वह व्यवस्था है जिसे तोड़ने के लिए किसी दल की सरकार तैयार नहीं होती। यह वह व्यवस्था है जो सामाजिक और आर्थिक शोषण का कारण बनी हुई है तथा नैतिक गिरावट के नए प्रतिमान स्थापित कर रही है।

हम देखते है कि आज की राजनीति पैसे और सत्ता का एक नया ही धर्म चला रही है जिसके नए देवता हैं राजनेता, जो नित नए रूप में प्रकट हो कर मायाजाल रचते हैं और आम जन को कमजोर करते है ताकि बाज़ार, उसे चलाने वाले और उसमें निवेश करने वाले सर्वव्यापी हो जाएं। जब शासन का नैतिक मूल्य सिर्फ पैसा हो जाता है तब प्रचार की चकाचौंध घनघोर हो जाती है। प्रचार की माया से लोगों की आंखों में धूल झोंकना आसान होता है इसीलिए जन सुनवाइयां सिर्फ प्रचार के लिए होती है। उनका उद्धेश्य जनसेवा नहीं बल्कि नेता को ब्रांड के रूप में स्थापित करना होता है। झूठ और फरेब के इस मायाजाल में बाज़ार को समर्पित एक ऐसी नई पीढ़ी तैयार हो रही है जो अपनी धरती और संस्कारों से टूटी हुई है और शून्य में जी रही है, जिसमें नफरत है, ईर्ष्या है लालच है और घमंड है। गांधी की अहिंसा भी आज मज़ाक और तिरस्कार का सबब बन रही हैं। यह भुला दिए जाने के सारे जतन होते हैं कि अहिंसा में सिर्फ एक चीज छुपी होती है वह है प्रेम। बाज़ार और आर्थिक विकास के नए मानदंडों को दुर्भाग्य से सभी राजनैतिक दलों ने अपना लिया है जिससे अब किसी के भी काम में कोई फर्क नज़र नहीं आता। सब एक ही रंग में रंगे नज़र आते हैं। विचारधाराएं संप्रदाय विभेद तक सीमित हो चली हैं। आर्थिक समृद्धि से पैदा होने वाली सामाजिक फसल का प्रबंधन कैसे किया जाय यही राजनैतिक दलों का धर्म हो चला है। और जब अर्थ प्रधान विकास को आधार बना कर काम होने लगता है तब समाज में आवारापन ही बढ़ता है। नए निज़ाम में जनसुनवाइयां होती रहेंगी और प्रचार तंत्र से लोगों को यह भरोसा दिलाया जाता रहेगा कि शासन उनके प्रति संवेदनशील है। ऐसे में आंकड़ों के खेल से स्याह को सफ़ेद किया जाता रहेगा। मगर आम आदमी की तकलीफें ज्यों की त्यों ही बनी रहेगी।