आसुरी लक्षण है कृतघ्नता – डॉ. दीपक आचार्य

????????????????????????????????????

विनय एक्सप्रेस समाचार, बीकानेर। जीवन में हमेशा मस्त रहने के लिए दो बातों का होना सर्वाधिक जरूरी है। जीवन व्यवहार को सुन्दर बनाने के लिए कृतघ्नता का परित्याग करें और कृतज्ञता अभिव्यक्त करना अपनी आदत में ढाल लें। इन दो बातों को अपनाने मात्र से व्यक्तित्व में ताजगी भरी वह गंध आ जाती है कि हर कोई अपना होने को चाहता है। हर व्यक्ति को इन मानवीय गुणों का अवलंबन करना चाहिए मगर कोई-कोई ही होते हैं जो यह कर पाते हैं। कृतज्ञता दैवीय गुण है और कृतघ्नता आसुरी। इसी से किसी भी व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन चरित्र को परिभाषित किया जा सकता है।

            हम यदि अपने भीतर के मनुष्यत्व को थोड़ा जागृत कर लें और संसार में आने तथा रहने के उद्देश्यों और लक्ष्य को जान लें तो ये ही नहीं बल्कि अन्य तमाम गुणों को आत्मसात कर सकते हैं। पर अपनी अधिनायकवादी वृत्तियाँ और विभिन्न रूपों में व्याप्त अहंकार इसमें सबसे बड़ी बाधा है जो किसी भी व्यक्ति को सरल और सहज होने नहीं देते।

            कृतघ्नता आसुरी वृत्ति का द्योतक है जबकि कृतज्ञता और उदारता दैवीय गुणों का परिचायक है। जिन लोगों का मन मलीन होता है, दिमाग खुराफाती होता है, उनमें कृतघ्नता कूट-कूट कर भरी हुई होती है और ऐसे खुदगर्ज व आत्मकेन्द्रित लोग सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थों की पूर्ति में ही दिन-रात लगे रहते हैं।

            इन लोगों के लिए अपने काम और स्वार्थ से बढ़कर दुनिया में कहीं कुछ दिखता ही नहीं। अपने काम के लिए ये लोग किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। किसी भी सीमा तक नीचे गिर सकते हैं। इसी कारण इन्हें उठाईगिरा कहा जाता है जो कि अपने आपको ऊपर उठाने के लिए कितने ही नीचे गिर सकते हैं। कहीं ये अकेले में गिड़गिड़ाने लगते हैं तो कहीं भीड़ में खड़े होकर धौंस जमाने।

            इनके लिए अपने काम के वक्त न कोई पराया होता है, न अपना। काम निकलवाने की सारी कलाबाजियों में माहिर ये लोग जिन माध्यमों का सहारा लेते हैं वे भी अपने आप में अजीब ही होते हैं। इनके लिए कोई भी आदमी तभी तक अपना होता है जब तक काम नहीं निकल जाए, इसके बाद उन्हें दूसरे कामों के लिए दूसरे-तीसरे आदमियों की तलाश शुरू हो जाती है। इस प्रवृत्ति के लोगों की तुलना आवाराओं और वैश्याओं से की जा सकती है जिनका कोई धरम नहीं होता। आज ये तो कल वो।

            ‘यूज एण्ड थ्रो’ की अवधारणा को कैसे अंजाम दिया जाता है, यह कोई सीखे तो ऐसे ही लोगों से। इस तरह के लोग अपने यहाँ ही हों, ऐसी बात नहीं। ऐसे लोग पूरी दुनिया में पाए जाते हैं। कलिकाल का प्रभाव कहें या कि मानवीय गुणों और संवेदनाओं का ह्रास, इस प्रकार की प्रजातियां आजकल सब तरफ पसरती और छाती जा रही हैं।

            यह अलग बात है कि अपनी धरा पर जाने क्या अभिशाप है कि इस किस्म के लोगों की खूब भरमार बनी हुई है। हमारे यहाँ कृतघ्न लोगों की जमात हर किसी क्षेत्र में विद्यमान है और दुर्भाग्य से इनकी तूती भी बोलती है। शायद ही कोई इलाका ऐसा बचा हो जहाँ इस किस्म के पिशाच न पाए जाते हों अन्यथा ऐसे पुरुषों और स्त्रियों की कहीं कोई कमी नहीं है जिनके लिए पौरुष और स्त्रैण तत्व से कहीं अधिक क्षुद्र स्वार्थ प्रधान हैं।

            इन लोगों की पूरी जिन्दगी का निचोड़ निकाला जाए तो एक बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि इन्होंने जो कुछ मुकाम हासिल किया है वह कृतघ्न बने रहकर। आज इसका तो कल किसी और का इस्तेमाल करते हुए ये अपने उपयोग में आने लायक लोगों को बदल-बदल कर लगातार आगे बढ़ते रहे हैं।

            ऐसे लोगों का अपना खुद का कोई हुनर हो न हो, ईश्वर ने उन्हें पूर्व जन्मार्जित पुण्य की बदौलत कोई ऐसा भाग्य जरूर दिया होता है कि ये दूसरों के बूते कमा खाने और घर भरने के साथ ही यशेषणा को आकार देने में माहिर हो ही जाते हैं।

            वर्तमान दौर के राजनैतिक संसार में ऐसे कृतघ्न लोगों की अनचाही भीड़ लगातार बढ़ती ही जा रही है। जो उन्हें आगे लाता है, प्रोत्साहन और सम्बल देता है उसी के पर काटने लगते हैं और कृतघ्नता का हथियार लेकर भस्मासुर बनकर खुद हावी हो जाते हैं।

            इन लोगों को मानवता या मानवीय मूल्यों से कोई सरोकार नहीं होता। इन्हें अपनी चवन्नियां और खोटे सिक्के चलाने, मुफ्त का भोग-विलास पाने और हमेशा अहंकार की परितृप्ति के लिए बड़े कद वाले पदों का मोह चाहिए होता है।

            यह कृतघ्नता ही है जो उनके भीतर राक्षसों के तमाम अवगुणों को आकार दे डालती है और फिर ये मदान्ध, मोहान्ध, मुद्रान्ध और कामान्ध पिशाच और पिशिचिनियां जो कुछ करतूत और करामात करने में रमी रहती हैं, इसके बारे में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है, सब जानते हैं। हम सभी का ऐसे असुरों से अक्सर पाला पड़ता रहता है।