सरकार पर ब्यूरोक्रेसी का दबदबाः पढ़िए विनय एक्सप्रेस मीडिया समूह के संपादक विनय थानवी का विश्लेषण

संपादकीय आलेख, विनय थानवी। भारत में ब्यूरोक्रेसी, यानी नौकरशाही, सरकार के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह प्रशासनिक ढांचा नीतियों को लागू करने, जनसेवा प्रदान करने और शासन की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है। हालांकि, कई बार ब्यूरोक्रेसी का प्रभाव इतना बढ़ जाता है कि यह सरकार और निर्वाचित प्रतिनिधियों पर हावी होने लगती है। राजस्थान जैसे राज्यों में यह मुद्दा विशेष रूप से चर्चा में रहा है, जहां विधायकों और मंत्रियों ने नौकरशाही के दबदबे की शिकायत की है। इस लेख में हम इस समस्या के कारणों, प्रभावों और समाधान पर चर्चा करेंगे, जो जनस्वास्थ्य के लिए प्रासंगिक हैं।

ब्यूरोक्रेसी के दबदबे के कारण

संस्थागत ढांचा और शक्तिः ब्यूरोक्रेसी का आधार मैक्स वेबर का आदर्श नौकरशाही मॉडल है, जो पदानुक्रम, नियम-कानून और विशेषज्ञता पर आधारित है। भारत में IAS, IPS और अन्य प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों को व्यापक शक्तियां प्राप्त होती हैं, जो कई बार निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रभाव को कम करती हैं।

नीति कार्यान्वयन में विशेषज्ञताः ब्यूरोक्रेसी नीतियों को लागू करने में विशेषज्ञता रखती है और इसके पास तकनीकी ज्ञान होता है, जो निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास हमेशा नहीं होता। इससे अधिकारी निर्णय लेने में प्रभावी हो जाते हैं, लेकिन यह निर्वाचित नेताओं के नियंत्रण को कमजोर कर सकता है।

राजनीतिक अस्थिरताः कमजोर या अस्थिर सरकारों में ब्यूरोक्रेसी अधिक प्रभावशाली हो जाती है।

रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचारः कुछ मामलों में, नौकरशाही भ्रष्टाचार का केंद्र बन जाती है। सामान्यतःदेखा जाता है कि जिला कलेक्टर जैसे अधिकारी जनता की शिकायतों को नजरअंदाज करते हैं, जो पारदर्शिता की कमी को दर्शाता है।

नागरिकों से दूरीः ब्यूरोक्रेसी को अक्सर जनता से दूर और असंवेदनशील माना जाता है। किसी ने विनय एक्सप्रेस कार्यालय मे अपने अनुभव साझा करते हुए बताया कि सरकारी कर्मचारी नियमों से इतने बंधे होते हैं कि वे जनता की समस्याओं को टालने की कोशिश करते हैं।

ब्यूरोक्रेसी के दबदबे के प्रभाव

लोकतांत्रिक जवाबदेही में कमीः जब ब्यूरोक्रेसी सरकार पर हावी हो जाती है, तो निर्वाचित प्रतिनिधियों की जवाबदेही कम हो जाती है, क्योंकि नीतिगत निर्णयों में नौकरशाहों का प्रभाव बढ़ जाता है।

नीति कार्यान्वयन में देरीः अत्यधिक नियम-कानून और लालफीताशाही के कारण नीतियों का कार्यान्वयन धीमा हो जाता है। इसे “रेड टेप“ के रूप में जाना जाता है।

जनता में असंतोषः जब नागरिकों को सरकारी सेवाएं प्राप्त करने में कठिनाई होती है, जैसे कि रिश्वतखोरी या जटिल प्रक्रियाओं के कारण, तो सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ता है।

आर्थिक और सामाजिक विकास में बाधाः नौकरशाही की अक्षमता और भ्रष्टाचार के कारण विकास योजनाएं प्रभावित होती हैं, जिससे गरीब और कमजोर वर्ग सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।

समाधान के उपाय

नौकरशाही सुधारः नौकरशाही को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिए सुधार जरूरी हैं। उदाहरण के लिए, डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से शिकायत निवारण प्रणाली को मजबूत करना।

निर्वाचित प्रतिनिधियों का सशक्तिकरणः मंत्रियों और विधायकों को प्रशासनिक प्रक्रियाओं में अधिक प्रभावी भूमिका दी जानी चाहिए, ताकि नौकरशाही उनकी बात को नजरअंदाज न कर सके।

जनता की भागीदारीः नीति निर्माण और कार्यान्वयन में जनता की भागीदारी बढ़ाकर नौकरशाही की मनमानी को कम किया जा सकता है।

भ्रष्टाचार पर नियंत्रणः सख्त कानून और निगरानी के माध्यम से रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार को कम करना जरूरी है। सरकारी कर्मचारियों को जनता के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए।

प्रशिक्षण और प्रोत्साहनः नौकरशाहों को नियमित प्रशिक्षण और प्रोत्साहन देकर उनकी कार्यकुशलता बढ़ाई जा सकती है, ताकि वे जनहित में काम करें

सरकार पर ब्यूरोक्रेसी का दबदबा एक जटिल समस्या है, जो लोकतांत्रिक जवाबदेही और जनसेवा को प्रभावित करती है। राजस्थान जैसे राज्यों में यह मुद्दा विशेष रूप से उजागर हुआ है, जहां निर्वाचित प्रतिनिधियों ने नौकरशाही की मनमानी की शिकायत की है। सुधारों, पारदर्शिता और जनता की भागीदारी के माध्यम से इस दबदबे को कम किया जा सकता है। साथ ही, जनस्वास्थ्य उपायों को नौकरशाही के माध्यम से प्रभावी ढंग से लागू करके जनता का भला किया जा सकता है। नौकरशाही को सरकार का सहायक बनना चाहिए, न कि उसका नियंत्रक।

ब्यूरोकेसी के हावी होने के दो उदाहरण निम्नांकित है :

प्रथम उदाहरण : बीकानेर विकास प्राधिकरण

हाल ही में राजस्थान सरकार ने बीकानेर जिले में बीकानेर विकास प्राधिकरण की घोषणा की जिसका श्रेय बीकानेर पश्चिम विधायक जेठानंद व्यास को जाता है क्योंकि उन्होनें सरकार के गठन के पश्चात अवसर मिलते ही विधान सभा में यह मुद्दा प्रभावी ढंग से रखा, कुछ समय पश्चात पश्चात स्थानीय जिला प्रशासन द्वारा इस कार्यालय को शहरी क्षेत्र से करीब 15 से 20 किलोमीटर दायरें में स्थापित करने का निर्णय लिया जाता है, जो कि स्थानीय जन भावना के विरूद्ध निर्णय रहा और आम जन ने भी इसका खूब विरोध किया, जनभावना की गंभीरता को देखते हुए स्थानीय विधायक व्यास ने मुख्यमंत्री को एक पत्र लिख कर बीडीए कार्यालय को शहरी क्षेत्र के आस पास स्थापित करने हेतु चार स्थानों के सुझाव दिए जिस पर राज्य सरकार ने सकारात्मक रूख अपनाते हुए जिला प्रशासन को उस क्षेत्र का सर्वे कर जन भावना के अनुसार जनहित में निर्णय लेने को कहा लेकिन महत तीन दिवस के भीतर जिला प्रशासन बीकानेर जल्दबाजी दिखाते हुए बगैर जनता के विचारों से सहमत होते हुए अपने पहले से निर्धारित स्थान जोड़बीड़ में ही बीडीए कार्यालय बनाए जाने की पुनः अधिकृत
घोषणा की, जनता की सरकार और जनता के प्रतिनिधि सहित जनभावना के विपरित प्रशासनिक व्यवस्था का कार्य करना अच्छी लोकतांत्रिक व्यवस्था कभी स्थापित नहीं हो सकती । स्थानीय नागरिकों को भी अपने जनप्रतिनिधि के साथ खड़े रहकर उन्हें बल देना चाहिए साथ ही जनप्रतिनिधि को भी जनभावना के अनुरूप अपनी बात मुखरता से प्रदेश के मुखिया तक पहूंचानी चाहिए ताकी जनता के राज में जनता के कार्य हो न की प्रशासनिक अधिकारियों की इच्छा अथवा उन पर आए दबाव से कोई कार्य हो।

दूसरा उदाहरण : जनसंपर्क अधिकारी पदौन्नति मामला

आयुक्त जनसंपर्क विभाग सुनील शर्मा द्वारा द्वेषतापूर्ण तरीके से विभाग के सहायक प्रशासनिक अधिकारी के साथ मिलीभगत कर जनसंपर्क अधिकारी नागौर जो की एक दिव्यांग व्यक्ति है, की पदौन्नति रोकी गई। इसके उपरांत पीडीत पीआरओ ने विशेष निःशक्तजन न्ययालय, मंत्री सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग अविनाश गहलोत, गृह राज्य मंत्री जवाहर सिंह बेढ़म एवं विधायक जेठानंद व्यास को उक्त मामले की जानकारी दी गई तो इन सभी द्वारा तथ्यों की जांच परख पश्चात आयुक्त जनसंपर्क को पीडित पीआरओ की पदोन्नति किए जाने का आदेश एवं अनुशंषा पत्र प्रेषित किया। उल्लेखनीय है कि इन सब के बाद भी पीडित को पिछले दो वर्षों से प्रशासन द्वारा न्याय नहीं दिया गया, इतना ही नहीं बीकानेर विधायक द्वारा कार्मिक विभाग के सचिव को मामले में न्यायाचित एक्शन लेने के निर्देश दिए गए।

राजस्थान सरकार के विशेष योगयजन न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश की पालना आयुक्त जनसंपर्क विभाग सुनील शर्मा के द्वारा न किए जाने पर आयुक्त विशेषजन उमाशंकर शर्मा द्वारा मुख्य सचिव राजस्थान सरकार को पिछले हफ्ते नोटिस जारी किया गया जिस पर भी अभी तक कोई कार्यवाही नहीं हूई। उल्लेखनीय है कि पीडित दिव्यांग पीआरओ द्वारा संबंधित सभी छोटे-बड़े अधिकारियों को अपनी व्यथा बताने एवं लिखित प्रार्थना देने के बाद भी प्रशासन द्वारा कोई एक्शन नहीं लिया गया जिस पर पीडित पीआरओ ने राज्य मानव अधिकार आयोग में अपनी व्यथा रखी जिस पर सकारात्मक सुनवाई करते हुए मानवाधिकार आयोग ने आयुक्त जनसंपर्क को कड़े शब्दों में नोटिस जारी कर जवाब तलब किया गया है।

इस प्रकार राजस्थान में भारतीय प्रशानिक अधिकारियों की कार्यशैली न तो आमजन के प्रति विश्वास बढाती नजर आ रही है और न ही राज्य कार्मिको के प्रति न्यायसंगत होती नजर आ रही है।