विनय एक्सप्रेस आलेख – राजेंद्र बोड़ा।भारत को इस साल ऑस्कर पुरस्कारों में बड़ी सफलता हासिल हुई है। तेलुगु फिल्म ‘आरआरआर’ के गीत “नाटू-नाटू” और डॉक्यूमेंट्री फिल्म “द एलिफैंट व्हिस्परर्स” ने ऑस्कर पुरस्कार जीत लिए हैं।
95वें ऑस्कर पुरस्कारों ने भारत में लोगों को विशेष रूप से जश्न मनाने की मौका दिया है। अंतरराष्ट्रीय सिनेमा के सबसे चमकदार मंच पर भारतीय फिल्मों की उपस्थिति और भारतीय लोगों की सफलता स्वाभाविक ही सबके लिये गर्व की बात है। “आरआरआर” के गीत “नाटू-नाटू” को ‘बेस्ट ओरिजिनल सॉन्ग’ और “द एलीफेंट व्हिसपर्स” को बेस्ट डॉक्यूमेंट्री शार्ट फिल्म का पुरस्कार मिला है।
यह जान कर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि हमेशा से दुनिया में सबसे अधिक फिल्में बनाने वाले देशों में शुमार रहने वाले इस देश को ऑस्कर पुरस्कारों के 94 साल के इतिहास में एक हाथ की दो उंगलियों के पोरों की संख्या लायक भी सम्मान नहीं मिले। यह सिर्फ चौथी बार है कि भारतीय कलाकारों को वहां स्वीकृति मिली है। इससे पहले 1983 में रिचर्ड एटनबरो की भारत के साथ को-प्रोडक्शन में बनी फिल्म “गांधी” फिल्म के लिए भानु अथैया को ‘बेस्ट कॉस्ट्यूम अवॉर्ड’, 1992 में सत्यजीत रे को ‘लाइफटाइम अचीवमेंट’ अवॉर्ड और फिर 2009 में “स्लमडॉग मिलियनेयर” को तीन अलग-अलग श्रेणियों में ऑस्कर मिला था।
इस मंच पर भारतीय फिल्मों की अनुपस्थिति इसलिए नहीं रही कि यहां अमरीकी हॉलीवुड तथा अन्य देशों की फिल्मों से कमतर फिल्में बनती रही हैं। सच यह है कि पूंजीवादी दुनिया में पैसे की पूछ होती है। जब भारत गरीब था उसकी फ़िल्मों का दुनिया में कोई नामलेवा नहीं था।
जिस प्रकार हॉलीवुड सिनेमा, रशियन सिनेमा, फ्रेंच सिनेमा, इटेलियन सिनेमा या जापानी सिनेमा की पहचान थी वैसी पहचान हिन्दुस्तानी सिनेमा की कभी नहीं बन पाई क्योंकि उसे बाहर वालों ने अपने नजरिए से देखा। पहले अंग्रेजों के नज़रिये से और बाद में अमरीकी नज़रिये से दुनिया भारत को देखती रही और दुर्भाग्य से हम भी अपने सिनेमा को बाहरी नज़र से देखते रहे और अपने आप पर शर्मिंदा होते रहे।
हमारे अकादमिक लोग पूरी तरह से पश्चिम के नज़रिये में रंगे रहे क्योंकि उनकी पढ़ाई लिखाई जिन किताबों से हुई वे यह बताती रही कि भारत के लोग घोर पिछड़े हैं और पश्चिम के ज्ञान के बिना उनकी मुक्ति संभव नहीं है। मगर किसी ने यह चुनौती नहीं दी कि भारत को गरीबी बना कर ही ब्रिटेन संपन्न हुआ।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया को देखने का अकादमिक जिम्मा अमरीका ने ब्रिटेन से उसी तरह ले लिया जिस तरह रिले रेस की बैटन टीम का आगला खिलाड़ी थाम लेता है। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि शीत युद्ध और उसके बाद भी अमरीका भारत को किस निगाह से देखता रहा है।
मगर सब दिन होत न एक समान। समय हर एक का आता है। और समय शुरू हो चुका है भारत का, भारतीयों का। अब उन्हें हिकारत की नज़र से देखा जाना संभव नहीं है। अब उनको नजरंदाज़ करना दुनिया के लिए संभव नहीं है, ऑस्कर के लिए भी नहीं। इस साल का गीतकार चंद्राबोस और संगीतकार एमएम कीरावानी का बनाया गाना ‘नाटू-नाटू’ जो हिंदी में “नाचो-नाचो” के नाम से भी मशहूर है, फिल्म के दो मुख्य भारतीय किरदारों और कई अंग्रेज किरदारों के बीच एक डांस प्रतियोगिता की तरह फिल्माया गया है।
गीत के अंत में जीत भारतीय किरदारों की होती है। इस गीत को पुरस्कार मिलने के बाद उन अकादमिक लोगों को अपने विचार बदल लेने चाहिए जो हिन्दुस्तानी फिल्मों में नाच-गानों पर नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं। 2009 में फिल्म “स्लमडॉग मिलियनेयर” के गुलजार के लिखे और एआर रहमान के संगीतबद्ध किये गीत “जय हो” को भी इसी श्रेणी में ऑस्कर मिला था। हम कह सकते हैं कि गीत-संगीत वाली भारतीय फिल्मों को यह अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति है।
वैसे ऑस्कर पुरस्कार ऊंची नाक वाली कला फिल्मों के लिए जाना भी नहीं जाता। यह घोर व्यावसायिक उद्यम है जिसके फैसलों पर उंगलियां भी उठती रही हैं। अकादमी पुरस्कारों का घोषित उद्देश्य फिल्मों में उत्कृष्टता का सम्मान करना है। मगर उसका चयन इसकी हमेशा ताईद नहीं करता।
जहां कुछ समीक्षक इन पुरुस्कारों को एक महान आधुनिक कला-रूप का जश्न मनाने की परंपरा बताते हैं तो दूसरी तरफ ऐसा कहने वालों की भी कमी नहीं है कि ये पुरुस्कार धंधा करने वालों की वैसी ही पार्टी हैं जैसे जमीन जायदाद बेचने वालों के सम्मेलन होते हैं। यह बाज़ार का ऐसा खेल है जो अरबों डॉलर का व्यवसाय बनाता है। ऑस्कर एक ऐसी प्रतिस्पर्धा भी है जहां सांस्कृतिक ताकतें टकराती हैं। ऑस्कर अक्सर पीढ़ीगत बदलाव भी लाते नजर आते हैं, क्योंकि वहां एक नयी खेप पुरानों को हटाते हुए सामने आती दिखती है। हाल के वर्षों में, ऑस्कर नस्ल, लिंग और प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दों का भी रणक्षेत्र बना है।
किन प्रमुख हाई-प्रोफाइल लोगों को उभारा जाय और किनको नकारा जाय ऐसा वहां लंबे समय से चला आ रहा है। वैसे अकादमी पुरस्कार शुरू से ही हॉलीवुड के लोगों की पसंद बन गए क्योंकि इनसे उनके शहर की शक्ति और प्रतिष्ठा का विश्व स्तर पर प्रदर्शन होता है।
ऑस्कर के लिए नामित फिल्मों और फिल्मी हस्तियों की भी एक श्रेणी बनी हुई है ताकि स्वर्ण पाने से चूक जाने वालों का नाम भी इतिहास के पन्नों में आ जाए। इन पन्नों पर कुछ भारतीय फिल्मों और कलाकारों के नाम भी जरूर दर्ज हैं। अब तक, कुल 13 भारतीय ऑस्कर पुरुस्कार के लिए नामांकन पा सके हैं। यह संख्या नगण्य ही कही जाएगी।
इनमें से 8 ने स्वर्ण ट्रॉफी हासिल की है! महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ (1957) के साथ 30वें अकादमी पुरस्कारों में भारतीय सिनेमा ने अपना पहला ऑस्कर नामांकन सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय फीचर फिल्म श्रेणी में पाया। इस्माइल मर्चेन्ट आधुनिक भारत का पहला बंदा था जिसने हॉलीवुड में स्टूडियो से बाहर स्वतंत्र निर्माता निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बनाई और उस पर ऑस्कर को भी ध्यान देना पड़ा। ‘मदर इंडिया’ के तीन साल बाद हम इस्माइल मर्चेंट की ‘क्रियेशन ऑफ वुमन’ 33वें अकादमी पुरस्कार में नामांकित हुई। फिल्म को बेस्ट शॉर्ट सब्जेक्ट (लाइव एक्शन) कैटेगरी में प्रदर्शित किया गया।
मर्चेन्ट की यह पहली ही फिल्म थी। इसके बाद, फली बिलिमोरिया की “द हाउस दैट आनंद बिल्ट” 41 वें अकादमी पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र (लघु विषय) श्रेणी में नामांकित हुई। 1978 में, 50वें अकादमी पुरस्कारों में, ईशु पटेल की “द बीड गेम” को सर्वश्रेष्ठ एनिमेटेड लघु फिल्म श्रेणी में नामांकित मिला। इसके अगले वर्ष भारतीय सिनेमा से दो लोग कपिल और विधु विनोद चोपड़ा अपनी फिल्म ‘एन एनकाउंटर विद फेसेस’ के लिए सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र (लघु विषय श्रेणी) में नामांकित हुए।
वर्ष 1983 भारतीयों के लिए ऑस्कर में एक शानदार वर्ष साबित हुआ जब किसी भारतीय ने पहली बार यह पुरुस्कार जीता। भानु अथैया ने फिल्म “गांधी” में “सर्वश्रेष्ठ पोशाक डिजाइन” के लिए गोल्डन ट्रॉफी जीती। सर्वश्रेष्ठ मूल संगीत के लिए सितार वादक पंडित रवि शंकर नामांकन तक आकर रह गए। 59 वें अकादमी पुरस्कारों में इस्माइल मर्चेंट को उनकी दो फिल्मों ‘हॉवर्ड्स एंड’ और ‘द रिमेंस ऑफ द डे’ के लिए सर्वश्रेष्ठ पिक्चर श्रेणी में फिर से नामांकित किया गया। मगर पुरुस्कार का लिफाफा किसी और के नाम का खुला।
इक्कीसवी सदी में 74 वें अकादमी पुरस्कारों में, दो भारतीय फिल्में नामांकित हुई – सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा श्रेणी में आमिर खान की ‘लगान’ और सर्वश्रेष्ठ लघु विषय (लाइव एक्शन) श्रेणी में अश्विन कुमार की ‘लिटिल टेररिस्ट’। वर्ष 2009 भी एक उल्लेखनीय वर्ष रहा जब ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ ने तीन ऑस्कर जीते। फिल्म को ‘बेस्ट साउंड मिक्सिंग’ श्रेणी के लिए रेसुल पुकुट्टी को तथा एआर रहमान को गुलज़ार के साथ सर्वश्रेष्ठ मूल गीत के लिए पुरस्कार मिले। वर्ष 2011 में 83 वें अकादमी पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ मूल गीत श्रेणी में फिल्म “127 घंटे” के लिए एक भारतीय नामांकन, एआर रहमान का था। 2013 में, फिल्म “लाइफ ऑफ पाई” में सर्वश्रेष्ठ मूल गीत श्रेणी के लिए बॉम्बे जयश्री का भी नामांकन हुआ।फिर 85वें अकादमी पुरस्कार में एक बार फिर हमने एक भारतीय आसिफ कपाड़िया को उनकी फिल्म “एमी” के लिए सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र फीचर श्रेणी में ऑस्कर विजेता के रूप में देखा।
‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ के भारतीय मूल के ब्रिटिश अभिनेता देव पटेल को उनकी फिल्म “लायन” के लिए 2017 में फिर से ऑस्कर में नामांकित किया गया। पिछले साल ऑस्कर 2022 के लिए, तमिल निर्देशक पीएस विनोथराज की “कूझंगल” के अलावा, रितु थॉमस और सुष्मित घोष की ‘राइटिंग विद फायर’ को भी सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र फीचर की श्रेणी में नामांकित किया गया ।
अकादमी पुरस्कार समारोह पहली बार 1953 में संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रसारित किया गया और 1969 के आसपास से वह विश्व स्तर पर प्रसारित प्रेषित किया जाने लगा। बीसवीं शताब्दी के अंत तक यह पुरुस्कार समारोह एक महत्वपूर्ण घटना में तब्दील हो गया जिसे लाखों लोग दुनिया भर में अब लाइव देखते हैं। दशकों से, यह जलसा सलाहकारों, स्टाइलिस्टों, पंडितों और पूर्वानुमानकर्ताओं का घरेलू उद्योग जैसा बन गया है।
अमरीका में राष्ट्रपति पद की राजनीति की भांति ऑस्कर की दौड़ भी आसान नही होती। यह पुरुस्कार एक ऐसी विशाल, स्वचालित मशीन जैसी व्यवस्था द्वारा संचालित होता है जो नेपथ्य में रहती है। जैसे वाशिंगटन में राष्ट्रपति पद के दावेदारों के लॉबिस्ट और पोलस्टर होते हैं, वैसे ही ऑस्कर अवार्ड्स सीज़न में अभियान-रणनीतिकार और “ऑस्करोलॉजिस्ट” होते हैं। कला को किसी खेल टीम की तरह रैंक नहीं किया जा सकता। लेकिन हम लोगों को जीतते या हारते देखना पसंद करते हैं, और अगर मौका मिले तो हम जीतना चाहते हैं।