विनय एक्सप्रेस समाचार, बीकानेर। ‘‘ हम कामना तो सहिष्णु समाज की करते हैं और हमारा व्यवहार असहिष्णुता भरा है। तो असहिष्णुता की राह पर सहिष्णुता की स्थापना असंभव है ’’ ये उद्बोधन भारत विख्यात साहित्यकार प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने अपने व्याख्यान साहित्य और सहिष्णुता के तहत अभिव्यक्त किए।
अवसर था – परम्परा और बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति के सह आयोजन में कला-सृजनमाला की तीसरी मासिक कड़ी के तहत स्थानीय प्रौढ़ शिक्षा भवन में आयोजित साहित्य और सहिष्णुता का। इस व्याख्यान के मुख्यवक्ता भारत विख्यात साहित्यकार प्रो.सूर्यप्रसाद दीक्षित थे। उल्लेखनीय है कि प्रख्यात लोकअध्येता एवं संस्कृतिवेत्ता कीर्तिशेष डॉ.श्रीलाल मोहता के बहुविध व्यक्तित्व से प्रेरणार्थ प्रत्येक माह की 16 तारीख को कला-सृजनमाला के तहत विभिन्न कला और सृजन के कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं।
प्रो.सूर्यप्रसाद दीक्षित ने अपने व्याख्यान साहित्य और सहिष्णुता का प्रारंभ वेदों, उपनिषदों और वैदिक साहित्य से करते हुए मध्यकाल के साहित्य में समाहित विभिन्न प्रसंगों एवं कथानकों के माध्यम से यह विचार स्थापित किया कि साहित्य ने समाज की असहिष्णुता का खंडन करके समाज में सहिष्णुता स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाई है।
उन्होंने भक्ति एवं सूफी साहित्य, तुलसीदास, जायसी, रसखान, कबीर, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा आदि सुख्यात साहित्य साधकों के विभिन्न पदों का उल्ल्ेख करते हुए कहा कि तत्कालीन समाज में व्याप्त धर्म, वर्ग, वर्ण, जाति, ऊंच-नीच, महिलाओं की स्थिति, सामंतवादिता आदि पर कटाक्ष करते हुए समन्वय स्थापित करने का कार्य प्रभावी रूप से हुआ था। उस समय के साहित्य में सहिष्णुता के उत्तरदायित्व का पूर्णतः निर्वाह किया गया था और इसके परिणाम भी समाज में सकारात्मक रूप से देखने को मिले थे।
तुलसी से राम भक्तों के मुख से शिव द्रोही मम दास कहावा सो पर मोहिं सपनेहुं नहीं भावा और शैव उपासकों के लिए राम द्रोही मम दास कहावा सो पर मोहिं सपनेहुं नहीं भावा कहलावाकर समाज में शिव एवं राम उपासकों में मजबूत समन्वय स्थापित किया था। वहीं रसखान के कृष्ण भक्ति के पदों ने मुस्लिम एवं हिन्दु धर्म के बीच की खाई को पाट दिया था।
अपनी बात को आगे बढ़ातंे हुए प्रो. दीक्षित ने पिछले कुछ समय से देश-विदेश में घटित धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता की घटनाओं के विभिन्न उदाहरणों का उल्लेख करते हुए कहा कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। इसे हमें हर हाल में बाजारवाद से बचाना होगा। बाजारवाद में सहिष्णुता की कोई जगह नहीं होती। जब तक हमारा व्यवहार असहिष्णु है तब तक हम समाज में सहिष्णुता की स्थापना नहीं कर सकते। इसलिए साहित्य का उत्तरदायित्व बन जाता है कि हम समाज में समन्वय स्थापित करने के लिए सकारात्मक लेखन करें।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन के तहत बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति के अध्यक्ष डॉ. ओम कुवेरा ने परंपरा और समिति की कार्यगतिविधियों का परिचय देते हुए डॉ.छगन मोहता के बहुविध ज्ञानसमृद्ध व्यक्तित्व की व्याख्या करते हुए कहा कि डॉ. छगन मोहता ज्ञान और गुणों से अपने आप में तीर्थ थे।
संस्था की मानद सचिव श्रीमती सुशीला ओझा ने कहा कि कीर्तिशेष डॉ.श्रीलाल मोहता के प्रति कला सृजनमाला अपने-आप में सार्थक श्रद्धांजलि है।
प्रारंभ में संस्था के पदाधिकारियों द्वारा व्याख्यान के मुख्यवक्ता प्रो.सूर्यप्रसाद दीक्षित का माल्यार्पण, शॉल एवं स्मृति चिन्ह प्रदान कर सम्मान किया गया। संस्था परिवार के ब्रजरतन जोशी द्वारा प्रो.दीक्षित के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से आगंतुकों को अवगत कराया गया।
आगंतुकों के प्रति आभार संस्था परिवार के गिरिराज मोहता द्वारा व्यक्त किया गया। इस अवसर पर संस्था के पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं और शहर के प्रबुद्धजन की सक्रिय सहभागिता रही।