डॉ.छगन मोहता स्मृति व्याख्यानमाला : विरोध को दबाना सत्ता का प्रमुख स्वभाव है -प्रियंवद

विनय एक्सप्रेस समाचार, बीकानेर।  जब भी कोई व्यक्ति सत्ता के विरूद्ध आवाज उठाता है तो सभी सत्ताएं एक दूसरे के अस्तित्व की रक्षा के लिए उस आवाज को दबाने और समाप्त करने में एकजुट हो जाती है। विरोध को दबाना सत्ता का प्रमुख स्वभाव है। यही व्यक्ति और सत्ता द्वंद्व है।ये उद्बोधन प्रख्यात विचारक, इतिहासवेत्ता प्रियंवद ने डॉ.छगन मोहता स्मृति व्याख्यान की 19वीं कड़ी के तहत व्यक्ति और सत्ता का द्वंद्व विषय अपने व्याख्यान के महत अभिव्यक्त किए।

अवसर था- शहर के प्रबुद्धजन से आकंठ स्थानीय प्रौढ़ शिक्षा भवन में बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति, बीकानेर द्वारा आज 21 अगस्त, 2022 को आयोजित डॉ.छगनमोहता स्मृति व्याख्यानमाला की 19 वीं कड़ी के रूप में व्यक्ति और सत्ता का द्वंद्व विषय पर प्रख्यात विचारक एवं इतिहासवेत्ता प्रियंवद के व्याख्यान के आयोजन का। इस अवसर पर संस्था परिवार ने मुख्य अतिथि प्रियंवद को शॉल एवं स्मृतिचिह्न प्रदान कर गौरवान्वित हुआ।


अपने व्याख्यान का प्रारंभ करते हुए प्रियंवद ने कहा कि मैं मुख्य रूप से चार प्रकार की सत्ताओं को सक्रिय मानता हूं – धर्म, समाज, राज्य और पूंजी। ये चारों सत्ताएं आपस में गहरी समझ और सामंजस्य रखती है और किसी भी सत्ता के प्रभाव को समाप्त नहीं होने देती। मनुष्य केवल जन्म के समय ही स्वतंत्र होता है फिर नाम, जाति, वर्ग, वर्ण, धर्म समाज आदि की बेड़ियों में इस कदर बांध दिया जाता है कि वह अपने को जानने के बारे में कुछ सोचता ही नहीं सकता।


प्रियंवद ने धर्म की सत्ता को प्रारंभिक सत्ता बताते हुए मानव मात्र से बढ़कर देवीय शक्तियों की सत्ता का मानवीय स्वत्रंता में हस्तक्षेप हुआ फिर सामाजिक सत्ता ने अपने अनुशासन थौंपकर मानव को नैतिक रूप से जकड़ दिया उसके पश्चात् राज्य जिसे समाज ने अपने भले के लिए अपने कुछ अधिकार सौंपे तो उसे वह अपनी शक्ति मानकार शासन करने लगा। इन तीनों सत्ताओं से बढ़कर पूंजी की सत्ता जिससे मनुष्य की सर्वाधिक मुठभेड़ होती रहती है – ने धर्म, समाज और राज्य तीनों सत्ताओं को अपने नियंत्रयण में ले लिया।


अपने व्याख्यान के सार में प्रियंवद ने कहा कि गांधीजी का उदाहरण देते हुए कहा कि अकेला व्यक्ति भी सत्ता का विरोध कर उसे बदल सकता है। इसलिए मेरी नजर में लेखक वही है जो सत्ता के बंधनों का खुलकर विरोध करता है। इसलिए धर्म, समाज, राज्य और पूंजी की सत्ताओं के बंधनों से मुक्ति ही व्यक्ति और सत्ता के द्वंद्व की समाप्ति का मार्ग हो सकता है।
तत्पश्यात् जिज्ञासा सत्र में आगंतुकों के प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं की अभिव्यक्ति और उनके मुख्यवक्ता द्वारा दिए गए उनके प्रत्युत्तरों ने व्याख्यान को सार्थक बना दिया।


अध्यक्षीय उद्बोधन के तहत कवि-चिंतक डॉ. नंदकिशोर आचार्य ने कहा कि एक चेतना के रूप में सत्ताओं के बंधनों से बाहर आना ही वास्तविक स्वतंत्रता है – मनुष्यता है। मनुष्य होने के नाते स्वतंत्रता हमारे लिए आदर्श मूल्य है, लेकिन हमें यह चिंतन करना होगा कि हमारी स्वतंत्रता का अर्थ केवल अपनी स्वतंत्रता से है या फिर दूसरे की स्वतंत्रता का भी मान रखने से है। अज्ञेयजी तो दूसरों की स्वतंत्रता के प्रति निष्ठ रहने को ही वास्तविक स्वतंत्रता मानते थे।

यदि किसी भी प्रकार की सत्ता केवल अपने को सर्वोपरि बनाने या मानने में लग जाती है तब वह फासीवादी हो जाती है। हमें मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता या गरिमा का प्रयास नहीं करना हमें तो जीव मात्र की स्वतंत्रता का प्रयास करना चाहिए। मेरे ख्याल से हमारी चेतना ही हमारी आत्मा है इसलिए जब हम अपनी चेतना से समझौता करते हैं तब हम अपनी आत्मा को मार रहे होते हैं।


आयोजन के प्रारंभ में मानद सचिव श्रीमती सुशीला ओझा ने आगंतुकों का स्वागत करते हुए कहा कि यह व्याख्यानमाला संस्था के संस्थापक कीर्तिशेष डॉ.छगनमोहता के प्रति संस्था की कृतज्ञतापूर्ण कार्य-गतिविधि है।
संस्था के अध्यक्ष डॉ.ओम कुवेरा ने डॉ.छगनमोहता के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि चिंतन और प्रज्ञा के क्षेत्र में उनका व्यक्तित्व बेजोड़ था। वे अपने गुणों से सुधि समाज के लिए तीर्थ समान पूज्य हो गए।


मुख्यवक्ता का प्रियंवद का परिचय देते हुए संस्था के संयुक्त सचिव डॉ.ब्रजरतन जोशी ने कहा कि प्रियंवद का एक-एक अक्षर, एक-एक वाक्य अपने आप में नवीन विचार की स्थापना है।
अंत में संस्था परिवार के मुकेश व्यास ने आगंतुकों के प्रति आभार स्वीकार करते हुए कहा कि इस प्रकार के अवसर हमारी चेतना को परिष्कृत करते हैं।