विनय एक्सप्रेस आलेख, राजेन्द्र बोड़ा। चीन से खबर है कि वह देश बूढ़ा हो रहा है और उसकी आबादी बढ़ नहीं रही है। भारत उसे पीछे धकेलते हुए दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश होने का गौरव पाने वाला है क्योंकि उसकी आबादी नौजवान है। चीन में पिछले साल 2022 में ही साठ वर्षों में पहली बार उसकी आबादी के कम होने के आंकड़े सामने आने लगे थे। इसका एक कारण यह बताया जा रहा है कि चीन में उसकी युवा पीढ़ी विवाह कर, बच्चे पैदा करने तथा उनकी परवरिश करने की जिम्मेवारी नहीं उठाना चाहती है। यही कारण है कि परिवारों के दबाव के बावजूद चीनी युवक और युवतियां बच्चों के पालन पोषण से बचने के लिये अकेले जीवन बिताने पर अड़े हैं। अपनी नौकरियों की व्यस्तता और बच्चों की परवरिश पर आने वाले खर्चों से बचने के लिये वे विवाह न करने के लिये अपने परिजनों के सामने अनेक बहाने बनाते हैं। चीन के स्थानीय निकाय युवक युवतियों को अनुदान दे रहे हैं कि वे विवाह करके बच्चे पैदा करें। मगर इस प्रोत्साहन से युवा चीनी लोगों का कामकाजी और जीवन व्यवहार बदलता नजर नहीं आ रहा। इधर भारत, जिसकी बहुसंख्य आबादी युवा है, की युवा पीढ़ी में भी विवाह की जिम्मेवारियां उठाने को टालने की प्रवृत्ति अब स्पष्ट देखी जा सकती है। नई पढ़ी-लिखी भारतीय युवा पीढ़ी चीन की युवा पीढ़ी जैसी तो नहीं है किन्तु यहां भी अब हम देखते हैं कि पहले विवाह को कुछ वर्षों तक टालने के बाद, कामकाजी विवाहित जोड़े अपनी पहली संतान को भी टालते रहते हैं। उनका भी यही तर्क होता है कि वे अपने जीवन में पहले पूरी तरह स्थापित होना चाहते हैं। एक बार सैटल हो जायें फिर विवाह और संतान के बारे में सोचेंगे। उनका ऐसा सोचना इसलिये भी है कि परिवार को चलाने और बच्चों की परवरिश के लिये उनके पास समय नहीं होता है। इसी अवधारणा का आज सर्वत्र बोलबाला है। इस अवधारणा के साथ एक नई चीज और जुड़ रही है। पढ़ाई लिखाई पूरी करने और बेहतर रोजगार पाने की जद्दोज़हद में युवा पीढ़ी विवाह को तो टाल ही रही है मगर दूसरी तरफ बिना विवाह किये साथ रहने की ‘लिव इन रिलेशनशिप’ व्यवस्था को अपना रही है। ऐसे नए संबंधों का प्रचलन बढ़ने लगा है और उनके परिणामों को अदालतों से कानूनी मान्यता भी मिलने लगी हैं। यह सब बहुतों को, खास कर पुरानी पीढ़ी को, बेचैन करता है। पिछली सदी के पांचवें दशक में जन्मे लोग इस समस्या से सबसे अधिक परेशान हैं क्योंकि वे इस युगीय परिवर्तन को अपने सामने होता देख रहे हैं। उन्हें इसमें अपने सनातन, सामाजिक और मानवीय मूल्य तिरोहित होते लगते हैं। मगर युवा पीढ़ी के लोग ऐसे सोच वाले लोगों को ठस दिमाग का मानते हुए उनकी खिल्ली उड़ाने से भी नहीं चूकते।
ऐसा कहने वाले भी कम नहीं हैं कि आज के युवा जैसा सोच रखते हैं या जिस तरफ दौड़ रहे हैं उसके लिए पुरानी पीढ़ी ही जिम्मेदार है जिसने अपने बच्चों की सही परवरिश नहीं की। नहीं तो आज यह नौबत क्यों आती। बालकों के परवरिश को लेकर भारतीय समाज में गंभीर चर्चाएं हमेशा रही हैं। इंसान अपने रक्त से अच्छा या बुरा बनता है या परवरिश से इस पर भी अलग-अलग समय पर, अलग-अलग मत प्रकट किये जाते रहे हैं। वैसे तो ‘सही परवरिश’ की कोई एक परिभाषा या कोई एक आदर्श तरीका नहीं सुझाया जा सकता है, फिर भी प्रचार से माल बेचने में माहिर आज का बाज़ार युवा जोड़ों को अपनी संतान की परवरिश के कुछ नुस्खों की सलाहें और उपकरण जरूर बेच लेता है। मगर असली बात वहीं की वहीं रह जाती है कि कामकाजी जोडे बच्चों को कैसे पालें? खासकर वे जोड़े जो ऊंचे पैकेजों में अपनी धरती से दूर रहते हैं। उनके पास खर्च करने को पैसा है मगर उनके पास परिवार का सपोर्ट नहीं है। बहुत कम लोगों को यह समझ में आता है कि परिवार का सपोर्ट कोरा आर्थिक ही नहीं होता। उसके भावनात्मक जैसे अनेक अन्य आयाम भी होते हैं। परंपरागत भारतीय परिवारों में बच्चों की परवरिश मां-बापों की जगह दादा-दादी पर ही अधिक रही है। मगर अब ऊंचे पैकेज वाली नौकरियों में अपने मूल स्थानों से दूर मियां-बीबी अकेले हैं। उनके बच्चे कौन संभाले? नवजात बच्चा स्कूल जाने लायक हो तब तक के लिए कुछ लोग एक रास्ता यह अपनाते हैं कि थोड़े-थोड़े समय बच्चे के लिए दादा-दादी और नाना-नानी को अपने साथ रहने के लिए बुलाया लेते हैं कि वे बच्चे को संभाल ले। ऐसा सभी के लिए संभव नहीं होता। इसीलिए दाई की सेवा ली जाती है। बच्चा थोड़ा बड़ा होता है तो उसके लिए क्रैच की सेवा ले ली जाती है। मगर दाई और क्रैच की व्यवस्था में कामकाजी जोड़ों पर जबरदस्त मानसिक तनाव रहता है समय पर घर या क्रैच पहुंचने का। बड़े दाम की नौकरी उनकी पूरी ऊर्जा चूस लेती है। जिन तनावों में ये जोड़े बड़े पैकेजों पर काम करते हैं उनके साथ बच्चे पालने के एक नये तनाव से बचने के लिए वे विवाह और संतान के आगमन को टालते रहते हैं। उनके इन हालात को समझा जा सकता है।
जिन व्यस्तताओं में एकल परिवार के युवा पेरेंट्स होते हैं उनमें अपने बच्चों की परवरिश की कोई तैयारी नहीं होती। अपने परिवार के साथ जब वे थे तब अपनी पढ़ाई और ऊंचे नंबरों से परीक्षाएं पास करने के फेर में वे इतने व्यस्त थे कि जीवन के कारोबार के अनुभव नहीं ले पाये। उनके पास पैसों का आत्मविश्वास तो है, मगर जीवन के अनुभवों से वे कोरे हैं। हर चीज पैसे से ऑर्डर देकर खरीद लेना उन्हें बाज़ार ने जरूर सिखा दिया है। ऐसे माहौल में बहुत से लोग अपनी संतान को स्कूल की पहली क्लास से भी पहले अपनी ही तरह के तनाव में धकेलते हुए नज़र आते हैं। वे अपने बच्चे को अपनी जायदाद की तरह संभालते हैं जिसका मूल्य निरंतर बढ़ता रहे। वे अपने बच्चों से प्यार करते हैं इसका अनुभव वे किताबी ज्ञान से करते हैं। वे उसे बच्चा नहीं रहने देते; उसे बड़ा बनाने की जल्दी मचाये रखते हैं। ऐसे कामकाजी मां बाप कभी यह नहीं सोचते कि वे खुद जिंदगी के बारे में क्या जानते हैं जिसे वे अपने बच्चों को सिखा सकें? कोई उन्हें यह नहीं कहता कि बच्चा खुश रहना बड़ों से ज्यादा जानता है। उन्हें उनकी भागमभाग वाली ज़िंदगी में कौन समझाए कि उनकी जिंदगी में एक बच्चा आता है तो यह खुद उनके भी सीखने का वक्त होता है। मगर क्या करें उन्होंने ऊंचे वेतन के लिए अपना समय बेच दिया है। बच्चों के कारण अनजाने ही जब हंसने-हंसाने के क्षण आते हैं तब वे अपने बॉस के आदेश सुनने फोन पर व्यस्त होते हैं या अपने लैपटॉप पर ऑफिस की समस्या का समाधान कर रहे होते हैं। बच्चे खेलते हैं, गाते-बजाते हैं, सोफे के नीचे दुबकते हैं और न जाने क्या कुछ करते हैं जिसे आज के कामकाजी पेरेंट्स सामने होते हुए भी देख नहीं पाते हैं। वे घर में भी ऑफिस के साथ ऑनलाइन रहते हुए इन आनंद के लम्हों को परेशानी का सबब मान लेते हैं। अक्सर इस परेशानी से बचने के लिए बच्चों को टीवी में गेम चला कर सामने बिठा दिया जाता है या हाथ में मोबाईल फोन थमा दिया जाता है। बहुत से घरों में हम पाते हैं कि वहां सेना के अनुशासन जैसा माहौल बना होता है। ऐसे में वहां बच्चे डरे-सहमे दिखाई दें तो क्या आश्चर्य है। ऐसे में कैसे उम्मीद की जा सकती है कि बच्चे खुश हो कर जिएंगे। वे भी शुरू से तनाव सीखेंगे। मगर एकल परिवार में प्यार-भरा खुशनुमा माहौल बनाने वाले बुजुर्ग नहीं होते जो युवा पीढ़ी को बच्चे का बॉस बनने की बजाय उससे गहरी दोस्ती करना सिखाए। उस पर शासन चलाने से रोकें। अपने तनाव से निकल कर खुद को बच्चे से नीचे रहना सिखाएं ताकि वह आसानी से बात कर सके।
बच्चों की परवरिश के बारे में जानने के लिए युवा पेरेंट्स गूगल पर खोज करते हैं, किताबों के पन्ने पलटते वे यह तो जानते हैं कि बच्चों पर टीवी, पड़ोसी, स्कूल और लाखों दूसरी चीजों का असर होता है। उसको जो सबसे ज्यादा दिलकश लगेगा वह उसी की तरफ खिंचेगा। मगर वे वह आसान रास्ता अपनाते हैं जो पैसे देकर पाया जा सके। बाज़ार के पास उसका बटुआ ढीला करने के अनेक नुस्खे हैं। इन नुस्खों के फेर में पड़ना उनकी नियति बन जाती है। बच्चे को अपने पेरेंट्स के साथ रहना, घूमना-फिरना, बातें करना भाता है। मगर क्योंकि उनके पास वक़्त नहीं है इसलिए उससे बचने के लिए नए कामकाजी जोड़े संतान का आगमन टालते रहते हैं। कौन बच्चों के पालन पोषण और लालन पालन के इन झंझटों में पड़े कि बच्चों को सुरक्षा देना है, उन्हें रोगों से बचाना है, वे बीमार पड़ जायें तो डॉक्टर के पास ले जाना है। बच्चे को खेल खिलाना है, उनमें अच्छी आदतें डालना है, उन्हें शांतिपूर्ण माहौल देना है, और बच्चे को समय मिलने पर नहीं, हर समय दुलार देना है। उन्हें पढना, लिखना, गणना करना सिखाने के साथ-साथ सामाजिक दक्षता एवं संस्कार भी देना है। इतना सब करने की झंझटों को उठाने की बजाय कामकाजी युवक युवतियों को अपने कॅरियर के लिए विवाह और संतान को टालना ही अब उचित लगने लगा है।