श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए लाघव है प्रशस्त : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

साधु का अपरिग्रह महाव्रत, गृहस्थ भी समयानुसार परिग्रहों का करें अल्पीकरण

कालूयशोविलास आख्यान में आचार्य कालूगणी की मेवाड़ यात्रा सम्पन्न, पुनः मारवाड़ में पदार्पण

विनय एक्सप्रेस समाचार, छापर- चूरू. 74 वर्षों बाद छापर की धरा पर वर्ष 2022 का चतुर्मास कर रहे जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, महातपस्वी, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी इस वर्ष श्रद्धालुओं व जनमानस विशेष कृपा बरसा रहे हैं।

एक ओर भगवती सूत्र जैसे आगम के माध्यम से मानव-मानव को मोक्ष का मार्ग दिखा रहे हैं तो दूसरी ओर तेरापंथ धर्मसंघ के नवमें आचार्यश्री तुलसी द्वारा रचित अष्टमाचार्य कालूगणी के जीवनवृत्त ‘कालूयशोविलास’ के आख्यान के द्वारा छापरवासियों को नहीं, अपितु सम्पूर्ण तेरापंथ धर्मसंघ को आचार्य कालूगणी के विविध प्रसंगों के साथ जुड़ने व उन्हें अपने भाषा में समझने का सुअवसर भी प्रदान कर रहे हैं। यहीं कारण है कि प्रवचन पण्डाल प्रतिदिन श्रद्धालुओं से पटा-सा नजर आता है।

बुधवार को चतुर्मास प्रवास स्थल परिसर में बना आचार्य कालू महाश्रमण समवसरण श्रद्धालुओं से पटा हुआ था। युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने उपस्थित जनमेदिनी को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि भगवती सूत्र में प्रश्न किया गया कि श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए लाघव प्रशस्त है क्या? उत्तर दिया गया कि हां, श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए लाघव प्रशस्त है। साधु जो अपरिग्रह महाव्रती होते हैं, उनके लिए लाघव अर्थात् उसके लिए उपयोगी पदार्थों की भी अल्पता अच्छी होती है। अपरिग्रही साधु के पास न तो पैसा, न मकान, न दुकान, न जमीन नहीं होता और नहीं होना चाहिए। साधु के लिए उपयोगी वस्तु को भी साधु को कभी हमारा सामान कहना नहीं चाहिए, बल्कि उसे मेरे निश्राय की वस्तु आदि शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।

साधु अल्पेच्छा वाला हो। गोचरी में जो भी आए, मिले उसे शांति से ग्रहण कर लेना चाहिए। इसी प्रकार साधु में मूर्छा नहीं होनी चाहिए। अमूर्छा की चेतना बनी रहे। साधु मंे अगृद्धि अर्थात् अनासक्ति होनी चाहिए। साधु में किसी भी प्रकार की आसक्ति का भाव नहीं होना चाहिए। साधु को अपने स्वजनों आदि के प्रति भी ज्यादा मोह नहीं रखना चाहिए। इस प्रकार लाघव, अल्पेच्छा, अमूर्छा, अगृद्धि और अप्रतिबद्धता की चेतना साधु-साधुओं के लिए प्रशस्त होती है। ये पांचों बातें साधु के अपरिग्रह महाव्रत से जुड़ी हुई हैं। इससे साधु का मन और चित्त निर्मल रह सकता है।

अपरिग्रह की चेतना साधु के लिए प्रशस्त तो है ही गृहस्थ भी पूर्ण अपरिग्रही न बन सके तो परिग्रहों का अल्पीकरण करने का प्रयास करना चाहिए। एक समय के बाद अर्थात् वृद्धावस्था आने के बाद धन, मकान, दुकान आदि परिग्रहों का सीमाकरण करते हुए स्वयं को अपरिग्रह की साधना की दिशा में आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। परिग्रह एक प्रकार बन्धन है, इससे आदमी जितना मुक्त रह सके, इनका जितना त्याग कर सके, उसके लिए उतना ही अच्छा हो सकता है। श्रावक के बारह व्रतों में पांचवां व्रत इच्छा परिमाण व्रत और सातवां व्रत भोगोपभोग परिमाण व्रत अपरिग्रह का कुछ आंशिक रूप है। अपरिग्रह की चेतना का गृहस्थों में भी विकास हो तो उनकी आत्मा भी निर्मल और हल्की बन सकती है।

आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन में उपरान्त आचार्यश्री तुलसी द्वारा रचित कालूयशोविलास के आख्यान क्रम को आगे बढ़ाते हुए आचार्यश्री कालूगणी के मेवाड़ यात्रा का वर्णन करते हुए पुनः मारवाड़ में पधारने के अनेक प्रसंगों को राजस्थानी भाषा में रोचक ढंग से सुनाया। मुनि विकासकुमारजी ने गीत का संगान किया।