विनय एक्सप्रेस अतिथि संपादकीय- राजेन्द्र बोड़ा (वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक) विलासिता खुली अर्थव्यवस्था का एक आवश्यक अंग है। विलासिता पर लोग खर्च करते हैं उससे, मॉल सजते हैं, बाज़ार चलता है। जनसंचार के माध्यमों पर चल रहे प्रचार तंत्र के जरिये बाज़ार हमें उन चीजों पर खर्च करने को प्रेरित करता है जो वास्तव में हमारे जीवन की मूलभूत जरूरतें नहीं होतीं, विलासिता की वस्तुएं होती हैं। समाजशास्त्री मानते हैं कि पूंजीवाद और वामपंथ दोनों का अंतिम सामाजिक लक्ष्य एक ही है। वह लक्ष्य है सब तक विलासिता पहुंचाना। दोनों विचारधाराओं के रास्ते भले ही अलग-अलग हों, मगर लक्ष्य एक ही रहा है। वामपंथ के शासन में कठोर नियंत्रण से सबको बराबर विलासिता का हक़ सुनिश्चित करने के प्रयास किये गए। दूसरी तरफ पूंजीवाद भी विलासिता में सबकी बराबर भागीदारी चाहता है मगर यह बाज़ार की व्यवस्था में शासन की कम से कम दखलंदाजी तथा निजी पूंजी को सुनिश्चित करता है और लोगों की स्वतंत्र रूप से चुनने का मंत्र देता है। इन दोनों के बीच समाजवाद भी होता है जिसके समर्थक व्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ शासन के जरिये सामाजिक नियंत्रण पर राजी हो लेते हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी का यह समय ऐसा है जब विज्ञान आधारित तकनीकी बदलाव जबर्दस्त तेजी से हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा है। मानव अपने इतिहास में इतनी तेजी से ऐसा बदलाव पहली बार अनुभव कर रहा है। इन्हीं बदलावों और जरूरतों के चलते हुए नई आर्थिक नीतियां आमूल परिवर्तनों की तरफदारी करती हैं। हम सहमत हों या असहमत, बदलाव को हमें स्वीकार करना पड़ेगा। इसके अलावा हमारे पास अन्य कोई चारा भी नहीं है। पूंजीवाद की बाढ़ का जो दरवाजा कांग्रेस की सरकार ने खोला था उसे बंद करना अब असंभव है। अब हर तरफ पूंजी का बोलबाला है और सभी उसी की शरण में है उसी प्रकार जैसे “बुद्धम शरणम गच्छामि”! या फिर भक्ति काल में “कृष्णम शरणम ममः”। ऐसे भारतीय मन को पहले राजा या सामंतशाही ने और बाद में हल्के वामपक्ष की ओर झुकाव लिये समाजवाद ने भी आकर्षित किया। आज़ादी के बाद सब कुछ ऊपर वाला करेगा याने सरकार करेगी के भाव ने लोकतन्त्र में भी अधिनायकवाद को नए रूप में जारी रखा। इसके नतीजे में गणतन्त्र का निर्वाचित नेतृत्व का व्यवहार सामंती और अधिनायकवादी होता चला गया।
बाज़ार आस्था को भी भुना लेना जानता है। इसे विद्यानिवास मिश्र ने “महाजनी सभ्यता का इंद्रजाल” कहा था। यह इंद्रजाल हमारी सनातन परम्पराओं, जो रूढ़ियां नहीं है, की शिक्षा का शमन करता है। इसके लिए वह सबसे पहले हमारे मन को हरता है। भारतीय मन पोथी वाला मन नहीं है। इसलिए यहां की मौखिक परंपरा गहरी मानवीय संवेदना की शिक्षा देती रही है। नयी पोथियों वाली शिक्षा प्रमाणपत्र देती है। वह केवल आश्वस्त भर करती है कि विद्यार्थी ने अमुक विषय की मुख्य पोथियां पढ़ ली है और उनके बारे में पूछे गए सवालों के निर्धारित जवाब औपचारिक परीक्षा में दे दिये हैं। उत्तीर्ण छात्रों को डिग्री का प्रमाणपत्र मिलता है कि उसने शिक्षा पा ली है। ऐसे प्रमाणपत्रों की शिक्षा जीवन में दूर तक साथ नहीं चलती। विस्मृत हो जाती है, क्योंकि उसका जीवन के कारोबार में कोई उपयोग नहीं होता। इसीलिए कहा जाता है कि आज के प्रमाणपत्रों वाली शिक्षा एक गहरी मानवीय मौखिक परंपरा वाली शिक्षा की पूर्ण विस्मृति की महंगी कीमत पर प्राप्त की गई है। शिक्षा अनंत जिज्ञासा, घनी आत्मीयता, और अपार करुणा का भाव देती है। ऐसी शिक्षा की व्यवस्था प्रमाणपत्र पाने की दक्षता देने वाले व्यावसायिक शिक्षण संस्थान कैसे कर सकते हैं! प्रमाणपत्र देने वाला शिक्षण अहंकार देता है। ऐसी जीत का अहंकार जो किसी भी कीमत पर हासिल की गई हो।
एक समय जब शिक्षक ने भारतीय मौखिक परंपरा को विस्मृत नहीं किया था तब उसमें गुरुत्व था। वह प्रमाणपत्रों के लिए ही नहीं जीवन के लिए भी छात्रों को तैयार करता था। मगर आज की शिक्षा व्यवस्था विद्यार्थी को अपने आप से, अपने समाज से, अपने परिवेश से अजनबी बनाती है। हर समय चौकन्ना रहना सिखाती है कि कहीं कोई और उसे पीछे न छोड़ दे। महाजनी संस्कृति की शिक्षा के संस्थान दंभपूर्ण आडंबर ओढ़े रहते हैं। इसी चमक से वे सबको भरमाते हैं। वे विद्यार्थियों को यही सिखाते हैं कि प्रतियोगिता में चूक मत करना नहीं तो दौड़ से बाहर हो जाओगे। दौड़ो, दौड़ो। दौड़ते हुए जीतने के लिए भले ही साथ वाले को टंगड़ी मारनी पड़े या अपने प्रभाव से खेल के नियम बदलवा देने पड़ें, मगर जीतने की ज़िद पर अड़े रहो। इस प्रकार देखें तो देखें तो पूरी शिक्षा व्यवस्था में असफल के लिए कोई स्थान नहीं है। शासन हो, समाज हो, अभिभावक हो, या शिक्षक सभी केवल सफलता के गुण सिखाने के प्रयासों में लगे रहते हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि सभी सफल होना चाहते हैं। सबको लगता है कि सफलता आखिर में उनके सब ऐब छिपा देगी। आज के विद्यार्थी को यह सिखाया जा रहा है कि खेल में जीतने के लिए रैफरी को खरीदना पड़े तो वह भी जायज है क्योंकि कहीं कोई जीतने में चूक हुई नहीं कि उसकी ज़िंदगी का सुख छिन जाएगा। सभी यह कहने का पाखंड तो करते हैं कि सीखने में, आगे बढ़ने में, और सफलता पाने में असफलता आवश्यक हैं, किंतु हमें शिक्षा तो असली जिंदगी में असफलता से बचने की दी जाती है। असफलता को दंडित किया जाता है। अब तो विफलता का भूत लोगों के दिमाग पर पहले से कहीं ज्यादा हावी है। अनिश्चितताओं तथा तेजी से आ रहे परिवर्तनों ने असफलता के भूत की छाया को और अधिक विकराल कर दिया है। असफलता हमें बुरी लगती है। हमारा दिमाग गलतियों से होने वाले परिणामों पर अधिक केंद्रित रहता है, बनिस्पत कि उसके द्वारा खोले गए अवसरों के।
जब जीवन की शिक्षा में सफलता ही एकमात्र सूत्र बन जाती है तब कोई कितना ही बचे उसे झूठ, फरेब और बेईमानी की राह पर चल कर सफलता पाना आसान लगने लगता है। आश्चर्य नहीं कि आज का युवा पूछता है कि मैं अगर सत्य बोलता हूं और असफल होता हूं, तो क्या करूं? बेईमानी से बचा जाय कि सफलता छोड़ी जाए, क्या किया जाए? जैसे सवालों के जवाब हमारी आज की शिक्षा में नहीं सिखाए जाते। जीवन में बार-बार असफलता मानव के मन में एक भय पैदा करती है। इसलिए वह उन परिस्थितियों से बचने का प्रयास करता है जो उसे असफलता की ओर धकेलती है। इस भय के चलते अनेक लोग अपने सपनों से दूर चले जाते हैं और हीन भावना से भर जाते हैं। जीवन के आज के ऐसे सत्य से हमारी शिक्षा निगाह फेरे हुए है उस कि ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। हम जीवन की प्रतिकूलता के खिलाफ मजबूत बनने की कोशिश करते हैं मगर हम असफलता के विषय का जिक्र ही नहीं करते, उसे भूल जाना चाहते हैं। असफलता से हम निराश महसूस करते हैं। मनोचिकित्सक कहते हैं कि हम अपने बारे मे कैसे सोचते है और दूसरे लोगों के बारे मे कैसे सोचते है इसी में सारा रहस्य छुपा है। हमारे विचार ही हमारी भावनाओं को प्रभावित करते हैं। वे कहते हैं कि किसी परेशानी की हालत में हमारे विचार हमारी भावनाओं और हमारे शारीरिक लक्षणों को प्रभावित कर सकते है।
आज की शिक्षा व्यवस्था मानवीयता के नैतिक दायित्वों से मुंह फेरते हुए आधारहीन और मूल्यहीन राजसत्ता में अपना वर्चस्व बनाने का लोभ भी पैदा करती है। आज की शिक्षा सत्ता में कुर्सी पाने या उसे बनाए रखने के लिए अनुष्ठान करना सिखाती है। एक ठहरा हुआ मूल्य सिखाती है। जबकि असली शिक्षा निरंतर जांचा जाने वाला, और जांचा जाकर निरंतर नये रूप में निखर कर उभरने वाला मूल्य सिखाती है। बहुतों को तो यहां तक लगता है कि भारत को एक कचरा फेंकू उपभोक्ता संस्कृति वाला ऐसा देश बनाने पर हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था आमादा है जहां सभी लोग बाज़ार के शिकंजे में फंसे हों। सभी पर खरीदो-खरीदो, भले ही बैंक से उधार लेकर ही खरीदो, पर खरीदो का पागलपन सर्वत्र हावी नज़र आता है। कुछ पाने की एक अजीब सी लाचारी में सभी लोग अपने को फंसा पाते हैं। ऐसे में प्रतियोगी प्रवेश पारीक्षाएं पास करके और प्रमाणपत्र आधारित चयन प्रक्रिया की व्यवस्था से चुने जा कर बने शिक्षकों से कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे तत्व ज्ञान वाली भाषा बोल या समझ सकते हैं और वैसी शिक्षा दे सकते हैं। आज की शिक्षा हमें अंध विश्वासों और घोर अकर्मण्य नियतिवाद में ही धकेलती है। यह सबको स्पष्ट दीख भी रहा है। शिक्षा जब बाज़ार का हित साधने वाली बना दी जाती है तब यही होता है। ऐसा इसे कौन बनाता है? हमारे नीति निर्माता और लोकतान्त्रिक विधि से चुने हुए जन प्रतिनिधि इन हालात के जिम्मेवार हैं। हालांकि ये जन प्रतिनिधि विधि सम्मत लोकतान्त्रिक दरवाजों से होकर सत्ता में पहुंचते हैं और नीति निर्धारक बनते हैं, परंतु उनका व्यवहार दर्शाता है कि वे सिर्फ एक ही नीति जानते हैं और वह कि किस प्रकार सत्ता पर अपना कब्जा बनाये रखना और जनहित के मुखौटों के पीछे अपने लिए और अपनों के लिए हो कर रहना और काम करना। इसलिए उन्हें ऐसी शिक्षा व्यवस्था की ही दरकार रहती है जो सबको मृग मरीचिका में भटकाए रखे ताकि दौड़ते- हांफते लोगों के पास उनसे कोई सवाल करने का समय ही न रहे। इसलिए महाजनी संस्कृति उन्हें बड़ी रास आती है। मगर भारतीय मन ऐसा नहीं है।