विनय एक्सप्रेस समाचार, जयपुर। हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के पहले कुलपति ओम थानवी का तीन वर्ष का कार्यकाल पिछले हफ्ते पूरा हो गया। इस तीन वर्ष के कार्यकाल में दो वर्ष तो कोरोना महामारी की भेंट चढ़ गए। बीच में ऐसा भी लगा कि इस महामारी के करण मीडिया जगत में आई मंदी को देखते हुए नए छात्रों का रुझान पत्रकारिता और जनसंचार की पढ़ाई की तरफ शायद कम होगा। किन्तु नए विश्वविद्यालय की कमान ऐसे श्रमजीवी पत्रकार के हाथ में थी जिसकी हिन्दी पत्रकारिता में ही नहीं साहित्य जगत में भी विशिष्ठ पहचान थी।
इसका ही नतीजा रहा कि यहां प्रवेश लेने में छात्रों में अच्छी खासी रुचि दिखी और दाखिले हुए। थानवी ने न केवल नए विश्वविद्यालय की ठोस नींव रखने का प्रयास किया बल्कि सबको यह महसूस भी कराया कि देश को जिस नैतिक साहस, गहरी सोच समझ तथा सरल भाषा में जटिल बात लिखने वाले पत्रकारों की जरूरत है उसकी यह बेहतरीन शाला बन सकता है। सक्रिय पत्रकारिता जगत से आये ओम थानवी ने यह भी स्थापित करने की कोशिश की कि पत्रकारिता की शिक्षा का काम कोरा अकादमिक ज्ञान देना नहीं हो बल्कि लोक सरोकारों को समझने और उनके साथ खड़े होने का नैतिक साहस देना भी हो। पहले कुलपति के रूप में नये विश्वविद्यालय की कमान संभालने का खुद मुख्यमंत्री ने उन से आग्रह किया यह अपने में बड़ी बात थी। एक समय ऐसा था भी जब अच्छे लोगों को विश्वविद्यालयों के कुलपति बनाने के लिए बुलाकर लाया जाता था। तब विश्वविद्यालयों ने जैसा वैभव पाया वह आज के आवेदन करके और जुगाड़ करके कुलपति बनने के काल में कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे ही बुलाया कर लाये गये थानवी ने अपने तीन वर्ष के कार्यकाल में यह साबित किया कि वे एक प्रखर पत्रकार के होने के साथ एक ईमानदार और कुशल प्रशासक भी हैं। कुलपति का पद पाने से उनका कद नहीं बढ़ा बल्कि उनकी उपस्थिति से देश भर में इस नये विश्वविद्यालय की विशिष्ट पहचान बनी। उच्च शिक्षा के इस संस्थान के शुरुआती छात्र गर्व करेंगे कि थानवी जैसे वाले उच्च कोटी के पत्रकार उनके कुलपति रहे। अब जब महामारी के हालत सामान्य हुए और समय आया कि इस विश्वविद्यालय की तामीर खड़ी हो तब थानवी का कार्यलाल पूरा हो गया।
अब आगे इस विश्वविद्यालय का अधिकतर भविष्य उन अकादमिक लोगों पर निर्भर करेगा जिनके पास पीएचडी की डिग्रियां होंगी, दस वर्ष तक विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर के रूप में पढ़ाने का अनुभव भी होगा मगर व्यावहारिक पत्रकारिता का कोई ज्ञान नहीं होगा हालांकि अब इसमें संशोधन का प्रस्ताव है। यह बात किसी को भी अनोखी लग सकती है कि एक ओर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जो यह बात सार्वजनिक रूप से कहते हों कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय उनका सपना है और जो दो बार वे यह जता चुके हों कि उन्हें भरोसा है कि पत्रकारिता विश्वविद्यालय की बागडोर किसी योग्य श्रमजीवी पत्रकार को सौंपने से उनके सपनों की संस्था साकार रूप ले सकती है तो क्यों नहीं उन्होंने शुरू में ही इस विश्वविद्यालय के कानून में ऐसा कोई प्रावधान करवाया जिससे चयन प्रक्रिया से भी कोई श्रमजीवी पत्रकार इसका कुलपति बन सके! यह सवाल वाज़िब है कि यदि राज्य सरकार किसी श्रमजीवी पत्रकार पर इतना भरोसा कर सकती है कि वह एक नए विश्वविद्यालय की मजबूत नींव रख सकता है तो उसका प्रावधान उसने इस संस्थान के विधान में ही क्यों नहीं किया? सच तो यह है कि जिस विधान से यह विश्वविद्यालय वज़ूद में आया है वह पत्रकारिता और जनसंचार की उच्च शिक्षा के लिए सबसे बुरे कानून का एक नायाब नमूना है। कांग्रेस के ही पिछले शासन में इसी नाम का एक विश्वविद्यालय बनाया गया था जिसे बाद में बीजेपी की वसुंधरा राजे के राज में भंग कर दिया गया। देश में किसी चलते हुए विश्वविद्यालय को बंद किए जाने की वह अपने तरह की अनोखी घटना थी। कांग्रेस का शासन फिर आने पर विधान सभा में कानून लाकर यह विश्वविद्यालय पुनः स्थापित किया गया। कोई भी समझदार शासन होता वह नए सिरे से इस विश्वविद्यालय की स्थापना करने के लिये लाये जाने वाले कानून को विधान सभा में पारित करने से पहले उस पर पुनर्विचार करता। मगर ऐसा नहीं हुआ। पुराना कानून ज्यों का त्यों विधानसभा में पास कर दिया गया। पिछले विश्वविद्यालय के काम के अनुभवों का लाभ लेने की कोई कोशिश नहीं की गई। जिस ताबड-तोड़ तरीके से राजे के राज में पिछला विश्वविद्यालय भंग किया गया उसी जल्दबाजी से गहलोत के राज में नया विश्वविद्यालय बनाने का विधेयक फिर से पास कर दिया गया। इस विश्वविद्यालय की रचना के लिए सरकारी विधि निर्माताओं के सामने कोई आदर्श रहा हो नहीं लगता। उचित होता यदि नए विश्वविद्यालय के कानून के प्रारूप पर सचिवालय के बाहर मीडिया संस्थानों तथा पत्रकार संगठनों सहित सभी हितधारकों के साथ गहन विमर्श होता। अब भी जो संशोधन प्रस्तावित है उसमें भी सचिवालय से बाहर से किसी की राय ली गई हो किसी को नहीं पता। ऐसा करने के लिए हमारा शासन तंत्र कब राजी होता है भला।
उद्यम और व्यवसाय जगत के प्रमुख लोग यह अनेक बार कह चुके हैं कि देश में डिग्री धारियों में से 20 प्रतिशत के पास भी काम करने का ज्ञान नहीं होता। उन्हें वह काम नहीं आता जिसकी डिग्री लहराते हुए वे रोजगार के बाज़ार में निकलते हैं। यही हाल पत्रकारिता विश्वविद्यालयों से डिग्री लेकर निकलने वाले अधिकांश लोगों का है। वरना ऐसा क्योंकर हुआ कि ज्यों-ज्यों पत्रकारिता की डिग्रियां लिए हुए नौजवानों की भर्तियां जनसंचार के संस्थानों में बढ़ती गई वैसे-वैसे मीडिया संस्थानों की विश्वसनीयता की चमक धुंधली होती चली गई। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि हमने पत्रकारिता की उच्च शिक्षा की कोई स्पष्ट वैचारिक अवधारणा कभी नहीं बनाई। पत्रकारिता की उच्च शिक्षा का उद्देश्य क्या हो? यह शिक्षा रोजगार पाने में मददगार होने वाली हो या किसी उद्यम की व्यवस्था को मदद करने वाली हो या नए मीडिया संस्थान खड़े करने की उद्यमशीलता विकसित करने वाली? हमें पहले यह तय करने की जरूरत है। हमें वैचारिक स्तर पर स्पष्ट परिभाषित ही नहीं करना होगा वरन् उस तरह की शिक्षा देने का ढांचा विकसित करना पड़ेगा। तभी हम अच्छी या गुणवत्ता वाली पत्रकारिता की उच्च शिक्षा दे पाएंगे। जनसंचार माध्यमों के पेशेवर पत्रकार, जिन्हें अब मीडियकर्मी कहें तो बेहतर होगा, अनिवार्य रूप से उस दुनिया का हिस्सा होते हैं जिसकी वह जानकारी लेता है और उसे जानकारी देता है। यदि ऐसा है तो यह भी स्वीकार करना होगा कि वह अपने समाज से नैतिक या राजनीतिक रूप से अलग नहीं होता। इसलिए उसे ऐसी शिक्षा देनी होगी कि वह अपने समाज का अभिन्न हिस्सा होते हुए भी उससे अलग रह कर चीजों को देखने तथा विश्लेषण करने की क्षमता पा सके। यही पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय का काम हो सकता है। सक्रिय पत्रकारिता जगत से आये निवर्तमान कुलपति ने यह प्रयास किया जिससे यह आशा बंधी थी कि अब विश्वविद्यालय में केवल किताबी ज्ञान नहीं मिलेगा बल्कि समाचारों की दुनिया का व्यावहारिक कौशल मिलेगा जिसका लाभ जनसंचार माध्यम के विभिन्न संस्थानों को मिलेगा और साथ ही ऐसे विद्यार्थी भी निकलेंगे जो जनसंचार के अपने उद्यम खड़े करेंगे और खबरों और विचारों की दुनिया में नए प्रतिमान स्थापित करेंगे। मगर एक तरफ जहां इस विश्वविद्यालय का पहला कुलपति मीडिया और जनसंचार के क्षेत्र में सुयोग्य नई पीढ़ी को तैयार करने की ठोस नींव रख रहा था वहीं दूसरी तरफ विपक्ष के कुछ राजनेता उस पर अनर्गल आरोप लगा रहे थे। उन्होंने ऐसे मिथ्या आरोप लगाये जिन्हें लगाने के वे दलगत राजनीति में पारंगत होते हैं। अचंभे की बात तो यह रही कि उन्हें संविधान के पद पर बैठे व्यक्ति ने बिना अपना विवेक लगाए आंख बंद कर मान लिया। ऐसा किए जाने से जो वातावरण बना उसे पत्रकारिता और जनसंचार की उच्च शिक्षा के लिए दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। इस कुलपति पर मिथ्या लांछन सिर्फ इसलिए लगाये गये क्योंकि वे अमुक विचारधारा से भिन्न मत रखते थे भले ही वे किसी राजनैतिक दल से कोई संबंध नहीं रखते थे।
थानवी अपने काम और व्यवहार से इस विश्वविद्यालय में जो पैमाना बना गये हैं वह आने वाले कुलपतियों के लिए रोशनी की मशाल बना रहेगा। उन्होंने इसमें स्नातक स्तर का पाठ्यक्रम जोड़ा ताकि पत्रकारिता की उच्च शिक्षा पाने के लिए विद्यार्थी तैयार हो सके। उन्होंने सरकारी तंत्र की सारी बाधाओं के बावजूद अपने दम से न केवल प्राइम लोकेशन पर विश्वविद्यालय के लिए ज़मीन आवंटित कारवाई बल्कि उसके भवन के लिए नींव का पत्थर भी रखवा गये। राजस्थान लेखा सेवा की एक अधिकारी जो विश्वविद्यालय की वित्त नियंत्रक भी रहीं का यह सार्वजनिक कथन कि “वे विश्वविद्यालय से कुछ लेकर नहीं, बहुत कुछ देकर ही गये” इसकी ताईद करता है। इस लेखाधिकारी की यह टिप्पणी सब कुछ कह देती है कि “उन्होंने विश्वविद्यालय की धनराशि को जिस मितव्ययिता के साथ ख़र्च किया, वह का़बिले तारीफ़ है। तीन विश्वविद्यालयों का कार्यभार होने पर उन्होंने न केवल अतिरिक्त वाहन को वापस कर दिया अपितु सरकारी यात्राओं का टीए-डीए भी कभी नहीं लिया। सरकारी कामकाज का अनुभव नहीं होते हुए भी विश्वविद्यालय कार्यालय में उन्होंने जिस प्रकार की व्यवस्थाएं दीं, वे उन्हें कुशल प्रशासक सिद्ध करती हैं”। थानवी जाते जाते भी अपने निजी संग्रह की एक हजार किताबें और 400 से अधिक दुर्लभ रिकॉर्डिंग विश्वविद्यालय को दे गये जो छात्रों और शोधार्थियों के लिए अत्यंत महत्व की होंगी।