विनय एक्सप्रेस आलेख- राजेंद्र बोड़ा। लोकतंत्र में एकाधिकारवादी शासन नहीं होता। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सबकी सहमति बनाई जाती है। भले ही शासन की बागडोर प्रतिस्पर्धात्मक निर्वाचन से सौंपी जाती है किन्तु राज्य का संचालन आम सहमति बना कर चलाना ही लोकतान्त्रिक नेताओं की असली उपलब्धि होती है। लोकतंत्र की पहली शर्त यही होती है कि उसमें प्रत्येक नागरिक को लगे कि वह अपने तरीके से जीवन जीने को स्वतंत्र है। इस स्वतंत्रता में उसकी किसी परमेश्वर में आस्था के साथ किसी परमेश्वर को न मानने की भी आस्था, उसका रहन सहन, उसकी बोली, उसका खानपान, पहनावा सब शामिल होता है। भारतीय संविधान उसे अपनी बात कहने का, अपना मत रखने का, और उसे अभिव्यक्त करने का पूरा हक़ देता है। संविधान उसे यह हक़ भी देता है कि वह बिना कोई लोभ, लालच, प्रलोभन या दबाव दिये दूसरों को अपने मत का बनाने के लिए प्रयत्न कर सके। नागरिकों के लिए इन्ही अधिकारों को पाने के लिए देश की आज़ादी के लिए लंबी जंग लड़ी गई थी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, भारत के स्वाधीनता संग्राम के मूलभूत मूल्यों में से एक थी। अंग्रेजों ने असहमति के स्वर को कुचलने का भरसक प्रयास किया परंतु स्वाधीनता सेनानियों को यह एहसास था कि देश में प्रजातांत्रिक संस्कृति के जड़ पकड़ने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अपरिहार्य है। स्वाधीनता संग्राम के कई नेताओं को निडरता से अपनी बात रखने की बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी। उन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा हर तरह से प्रताड़ित किया गया। स्वाधीनता के बाद, हमारे संविधान में इस तरह के प्रावधान किए गए जिनसे अभिव्यक्ति की आज़ादी को कोई सरकार समाप्त न कर सके। इन अधिकारों में प्रत्येक नागरिक को असहमति का अधिकार भी शामिल है जो संविधान की उसी धारा में समाहित है जिसमें प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी दी गई है। असहमति और कुछ नहीं बल्कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 में निहित प्रतिबंधों के अधीन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का विस्तार ही है। ये एक ऐसा अधिकार है जिसे बनाये रखने की हमने शपथ ले रखी है। जब भी कोई चीज़ हमारी अंतरात्मा के ख़िलाफ़ जाती है तो हम इसे मानने से इनकार कर देते हैं। अपना कर्तव्य समझते हुए हम ऐसा करने से इनकार करते हैं। संविधान हमें ऐसा अधिकार देता है कि हम ऐसी किसी बात को मानने से इनकार करें जो हमारी अंतरात्मा के ख़िलाफ़ है। यही बात महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन से हमें सिखाई। देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ ने भी हाल ही में टिप्पणी की कि सवाल करने और असहमतियों के लिए जगह ख़त्म करना राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तरक्की के आधार को ख़त्म करना है। इस लिहाज़ से असहमति लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व है। इसका मतलब है कि लोकतंत्र में असहमतियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए न कि उन्हें कुचला जाना चाहिए। शर्त बस इतनी ही है कि असहमति शांतिपूर्ण हो और वह हिंसा में तब्दील न हो।
असहमति का अर्थ विरोध नहीं होता, इसलिए हमारे यहां इसकी जगह पक्ष और प्रतिपक्ष की अवधारणा है। हमारे संवैधानिक सदनों में कोई विरोधी पक्ष नहीं होता, प्रतिपक्ष होता है। असहमति जीवंत लोकतंत्र का प्रतीक है। लोकतान्त्रिक शासन में असहमति की तार्किक अभिव्यक्ति आम सहमति बनाने के लिये ही होती है। लेकिन हम पाते हैं कि भारतीय समाज में विभिन्न मुद्दों पर विपरीत विचारधारा के लिये असहिष्णुता बढ़ रही है। यह चिंता की बात है। दुर्भाग्य से कई बार असहमति का विकृत रूप भी देखने को मिलता है। ऐसा प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति के कारण होता है जहां असहमति के लिए लोगों को भड़काया जाता है जिसका नतीजा जनसमूह के हिंसक हो जाने की घटनाएं के रूप में सामने आता है। असहमति व्यक्त करने के लिए शुरू में शांतिपूर्ण तथा अहिंसक तरीके से धरना-प्रदर्शन और बंद का आयोजन किया जाता है लेकिन उसे हिंसक होने में देर नहीं लगती। यह भी महत्वपूर्ण है कि हिंसा का माहौल आंदोलनकारियों के कृत्य से बनता है या राज्य की ताकत की प्रतीक पुलिस के असंयमित कदम से। लेकिन हिंसक गतिविधियों को ‘असहमति’ के दायरे में नहीं माना जा सकता। हिंसा भौतिक ही नहीं होती है। असंयमित भाषा, क्रूर भाषा और गाली -गलौच वाली भाषा, किसी को देख लेने की धमकी देने वाली भाषा और किसी की आस्था का अमर्यादित मजाक उड़ाना हिंसा का प्रतिरूप ही माना जा सकता है। अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के इस्तेमाल के नाम पर किसी व्यक्ति या समुदाय के बारे में कटुता फैलाने की आज़ादी भी हमारा संविधान नहीं देता। हाल के समय में नि:संदेह विवादास्पद कृषि कानून, नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर जैसे कई मुद्दों पर प्रतिस्पर्धी राजनीति के माहौल के कारण समाज में उत्तेजना रही है। इसके पीछे वैचारिक विमत प्रमुख रहा है। यह भी तथ्य है कि इन्हीं आन्दोलनों के दौरान कई स्थानों पर हिंसा भी हुई। सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिये आरक्षण सहित ऐसे अनेक विषय हैं, जिन्हें लेकर विभिन्न संगठनों और समूहों ने आन्दोलन शुरू किये, लेकिन आगे चलकर इनका रूप बदल गया और इसमें हिंसा भी शामिल हो गयी। सरकार के रवैये से नाराज होकर किये जाने वाले आंदोलनों के दौरान हिंसा और तोड़फोड़ होना भी आम है। इसीलिए लोकतंत्र में असहमति और असहमति व्यक्त करने के लिये हिंसा, तोड़फोड़ करने या फिर विघटनकारी गतिविधियों का सहारा लेने जैसे कृत्यों के बीच अंतर करने और असहमति के स्वरूप को परिभाषित करने की भी आवश्यकता महसूस की जाती रही है। असहमति के दायरे के निर्धारण के अभाव में आज समाज के हर वर्ग और समूह के लोग विभिन्न मुद्दों पर अपनी असहमति असंयमित और अमर्यादित भाषा से व्यक्त करने लगे हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी का बोलबाला सोशल मीडिया पर अधिक नज़र आता है जहां राजनीतिक दलों, नेताओं के साथ ही न्यायपालिका और इसके सदस्यों के बारे में भी मनमर्जी की टिप्पणियां आम होती हैं। इसी वजह से ऐसा महसूस किया जाता है कि सोशल मीडिया पर की जा रही अनर्गल और बेबुनियाद टिप्पणियों पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। इस समय उच्चतम न्यायालय में राजद्रोह के अपराध से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए को असंवैधानिक घोषित करने के अनुरोध के साथ अनेक याचिकाएं लंबित हैं। इन याचिकाओं में भी असहमति की आवाज उठाने वालों के प्रति धारा 124 ए के दुरुपयोग का आरोप लगाया गया है। न्यायालय भी ‘औपनिवेशिक काल’ के राजद्रोह संबंधी दंडात्मक कानून के ‘दुरुपयोग’ से चिंतित है और उसने कहा भी है कि एक गुट दूसरे समूह के लोगों को फंसाने के लिए इस प्रकार के (दंडात्मक) प्रावधानों का सहारा ले सकता है। यही नहीं, यदि कोई विशेष पार्टी या लोग विरोध में उठने वाली आवाज नहीं सुनना चाहते हैं, तो वे इस कानून का इस्तेमाल दूसरों को फंसाने के लिए कर सकते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमलों के पीछे कई कारण हो सकते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का एक तरीका हमने सन् 1975 के आपातकाल में देखा। उस समय देश में बोलने की आज़ादी पर रोक लगाने में राज्य की सबसे बड़ी भूमिका रही। इन दिनों जो हो रहा है उसमें राज्य की भूमिका तो है ही, परंतु इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि साम्प्रदायिकता के ज़हर से लबरेज़ लोग अपने स्तर पर साम्प्रदायिकता के विरोधियों की आवाज़ को कुचल रहे हैं, उन पर जानलेवा हमले कर रहे हैं। आज न केवल धर्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा का वातावरण बन गया है बल्कि उनके प्रति भी जो प्रजातांत्रिक और बहुवादी मूल्यों के हामी हैं। समाज में असहिष्णुता तेजी से बढ़ी है। ऐसे में अनेक सवाल उठते है। समाज का साम्प्रदायिकीकरण क्यों हो रहा है? हम इतने असहिष्णु क्यों होते जा रहे हैं? जो लोग प्रजातांत्रिक मूल्यों के पैरोकार हैं, उनकी जान क्यों ली जा रही है? जो लोग स्वाधीनता संग्राम और भारतीय संविधान के मूल्यों को बढ़ावा देते हैं उन पर हमले क्यों हो रहे हैं? साम्प्रदायिक विचारधाराएं, प्रजातंत्र विरोधी होती हैं और उनकी बढ़ती ताकत के चलते ही देश में अलगाव बढ़ता है। विचारधारा और असहिष्णुता व हत्याओं के परस्पर संबंध को समझने के लिए यदि हम कुछ पीछे मुड़कर देखें तो स्वाधीन भारत में वैचारिक कारणों से हत्या की सबसे पहली और सबसे प्रमुख घटना थी महात्मा गांधी की हत्या।
किसी भी प्रजातांत्रिक समाज के लिए यह आवश्यक है कि वहां सभी लोगों को अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार हो और सभी के विचारों पर स्वस्थ्य बहस के लिए जगह हो। नि:संदेह, असहमति संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी को प्रतिबिंबित करती है। प्रत्येक नागरिक को बोलने की स्वतंत्रता प्रदान करने वाले अनुच्छेद 19 (1)(ए) और इस संबंध में अनेक न्यायिक व्यवस्थाओं में स्पष्ट किया गया है कि अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार निर्बाध नहीं है और आवश्यकता पड़ने पर नियंत्रित किया जा सकता है। इसीलिए दूसरी तरफ असहमति को परिभाषित करने और इसकी लक्ष्मण रेखा खींचने की आवश्यकता भी महसूस की जाती रही है। अभिव्यक्ति और विचार की स्वतंत्रता राज्य की उदारता से नहीं मिलती। यह नागरिकों का मूलभूत अधिकार है। अभिव्यक्ति का सरकारी दमन असत्य को उजागर करने को अधिक कठिन तो बना सकता है, उसे कम नहीं कर सकता। भारत के प्रत्येक नागरिक को खुली, गतिशील तथा तर्कसंगत अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं नागरिक कर्तव्य भी है। क्या बोला गया है उसके आधार पर जब सरकार सार्वजनिक चर्चा को व्यवस्थित करने का प्रयास करती है तो वह अभिव्यक्ति की आज़ादी को बांधने की चेष्टा होती है।