असफलता को स्वीकार कराने वाली शिक्षा की भी जरूरत : राजेंद्र बोड़ा

विनय एक्सप्रेस आलेख, राजेंद्र बोड़ा. ब्रिटेन की एक महत्वपूर्ण पत्रिका ने 12 साल पहले अपना एक सम्पूर्ण अंक ‘असफलता’ पर निकाला था। इसके संपादक ने इस बार संपादकीय में बताया है कि वह इस पत्रिका का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला अंक साबित हुआ जिसे लोग अब तक फिर-फिर पढ़ते हैं। उस अंक में उसके प्रधान संपादक ने टिप्पणी की थी कि “सभी यह कहने का पाखंड तो करते हैं कि सीखने में, आगे बढ़ने में और सफलता पाने में असफलता आवश्यक हैं, किंतु असली जिंदगी में हम असफलता से बचते हैं और असफलता को दंडित करते हैं।” ज़िंदगी के किसी भी क्षेत्र में झांक कर देख लीजिये सभी जगह लोग सफलता चाहते हैं। कईं बार तो लगता है जैसे सफलता पाने का भूत मनुष्य में इस प्रकार बैठ गया है कि उसे लगता है सफलता नहीं मिली तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। अब तो लगता है कि विफलता का भूत लोगों के दिमाग पर पहले से कहीं ज्यादा हावी है। अनिश्चितताओं तथा द्रुत परिवर्तनों ने असफलता के भूत की छाया को और भी अधिक बड़ा कर दिया है। ऐसा मान लिया जाता है कि असफलता का मतलब है सब कुछ खत्म हो जाना। ऐसे लोग भी मिल जाएंगे जो हमेशा यही मनौती मांगते दिखते हैं कि उन्हें कभी असफलता का मुंह न देखना पड़े। नया उद्यम शुरू करने, परीक्षा देने जाने और कोई भी नई शुरुआत करने से पहले पूजा आदि करना करवाना, और नहीं तो ईष्ट के सामने माथा टेकना भारतीय लोगों के तो स्वभाव में ही आया हुआ है। छोटे बच्चे अक्सर निर्दोष होते हैं इसलिये वे असफल या कुछ होने या न होने के बारे में नहीं सोचते। फिर स्कूल उन्हें सफल होना सिखाते है। इसीलिये हम पाते हैं कि किशोर होने तक बालक असफलता के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। वे रिश्तों में, करियर के निर्धारण में और कई अन्य कारकों में असफलता महसूस करने लगते हैं। ऐसे में अनेक बार वे अपराध बोध की स्थिति में भी चले जाते हैं और आत्महत्या जैसी मनःस्थिति में आ जाते हैं और वैसा कर बैठते हैं।

 

असफलता की धारणा क्या है? असफलता हमें बुरी लगती है। हमारा दिमाग गलतियों से होने वाले परिणामों पर अधिक केंद्रित रहता है बनिस्पत उसके द्वारा खोले गए अवसरों के। कोई यह सीखना चाहे कि अमुक चीजें अगली बार फिर से वैसी ही करेंगे तो सफलता मिलेगी तो यह प्रयास भी निरर्थक होता लगता है। अनुभव और अनुसंधान बताते हैं कि अनेक बार सफलता भी असफलता को जन्म दे सकती है क्योंकि वह व्यक्तिगत और संगठनात्मक दोनों स्तर पर नया सीखने में बाधा बन जाती है। व्यापार का इतिहास उन कंपनियों की कहानियों से भरा हुआ है जो कभी अपने क्षेत्रों में शिखर पर थीं लेकिन नीचे गिर गईं। मगर इस गिरने से कारोबारी जगत के लोग सीखते हैं। उनके लिये भी यह बड़ी चुनौती है कि जब कोई सफल होता हैं तब क्या यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ऐसा उसकी प्रतिभा या किसी मॉडल या रणनीति हैं कारण हुआ? इनके अलावा भी अनेक कारक हो सकते हैं सफलता के। सफलता व्यक्ति को आगे बढ़ाती है, उसमें आत्म-आश्वासन जगाती है। खुद पर विश्वास है एक अच्छी बात है, बेशक, लेकिन ऐसा बहुत ज्यादा विश्वास व्यक्ति में यह भावना भी भर देता है कि अब नया जानने या करने तथा बदलने की आवश्यकता ही क्या है? जानकार कहते हैं कि हमें सफल विफलताओं को रचना सीखना होगा। मगर असफलता के विरुद्ध हमारा सांस्कृतिक पूर्वाग्रह बहुत मजबूत है। लगता है कि लोग सफलता को असफलता का विलोम मानते हैं। तो सवाल उठता है कि क्या असफल नहीं होने से सफलता मिल जाती है? क्या ऐसा संभव है कि दुनिया में सब अच्छा ही अच्छा हो और कोई समस्या ही न हो।

 

यह तो सभी मानते हैं कि जब प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती है तब सफलता और कठिन हो जाती है या कठिन लगने लगती है। ऐसे यह सवाल भी समाजशास्त्री उठाते हैं कि प्रतिस्पर्धी काल में व्यक्ति को सफलता के लिए क्या नैतिक मूल्यों से समझौता करना पड़ता है? उपभोक्ता के रूप में व्यक्ति जहां कहीं भी जाता है तो उसे ऐसे लोग ही मिलते हैं जो उसके बटुए में पहुंचना चाहते हैं। बाज़ार का समूचा संचार तंत्र इसी काम में लगा रहता है कि कैसे ग्राहक को पकड़ा जाय। कारोबार में तो मानो असफलता पूरी तरह अस्वीकार्य हैं और इसीलिए इसके लोग गलतियां करने से डरते हैं। गलतियों को स्वीकार करना तो भूल ही जाइए। गलतियों को मानवीय कमजोरी का संकेत माना जाता है। बड़ी कंपनियों में देखा जाता है कि वहां नेतृत्व के पदों पर बैठे लोग मातहत कर्मियों को जोखिम लेने की सलाह तो देते हैं किन्तु वे उनकी असफलता को स्वीकार नहीं करते और जोखिम लेकर असफल होने वाले को दंडित करते हैं। कार्यस्थलों में यह स्थिति आम है जहां अंडरपरफॉर्मेंस और असफलता की बात अस्वीकार्य होती है। ऐसा भी होता है कि एक परिणाम जिसे कोई कर्मचारी संतोषजनक मानता है मगर उसका बॉस उसे पूरी तरह से अस्वीकार्य मानता है। तब सवाल उठता है कि असफलता के साथ जीना कोई क्यों नहीं सिखाता? असफलता से बचने में लगाई जाने वाली शक्ति और ऊर्जा जीवन को सकारात्मक बनाने में क्यों नहीं लगाई जा सकती? एक वैज्ञानिक अध्ययन में पाया गया कि कुत्ते, चूहे, और यहां तक कि तिलचट्टे जो मानव जितना अनुभव नहीं रखते वे ऐसे दर्दनाक सदमे को जिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था बिना उससे बचने का प्रयास किये स्वीकार कर लेते हैं। मनुष्य ऐसा क्यों नहीं करता? यह भी सभी जानते हैं कि असफलता उनमें अवसाद और चिंता पैदा करती है।

असफलता जीवन के सबसे महत्वपूर्ण आघातों में से एक है। किन्तु अलग-अलग लोगों पर इसकी प्रतिक्रिया भिन्न होती है। कुछ थोड़े समय बाद बाद वापस सामान्य हो जाते हैं जबकि कुछ अन्य अवसाद में आकार भविष्य के भय में घुलते जाते हैं। यह भी स्पष्ट देखा जा रहा है कि विफलता पर प्रतिक्रिया किसी के कॅरियर पर भी असर डाल सकती है। असल बात यह है कि कोई अपनी असफलता को किस प्रकार लेता है।

शिक्षाविदों को भी यह सवाल मथता रहा है। उन्होंने अच्छा शिक्षक उसे माना है जो अपनी कक्षा में सफल और असफल छात्रों के बीच विभाजन रेखा न खींचे। शिक्षा व्यवस्था में भी यह प्रयोग होते रहते हैं कि प्रारम्भिक कक्षाओं में छात्रों को अंक न दिए जाएं, किसी को फेल न किया जाय। केवल कमजोर छात्रों पर विशेष ध्यान दिया जाय। इसी पर हाल ही में सोशल मीडिया पर एक जानकारी आई है। उसमें एक भारतीय छात्र किसी विदेशी विश्वविद्यालय में पढ़ाई शुरू करने का अपना पहला अनुभव साझा करते हुए कहता है कि वहां अधिकांश परीक्षाओं के लिए उच्चतम स्कोर 5 है। उसे यह जान कर घोर आश्चर्य हुआ कि वहां यदि कोई छात्र बिना किसी प्रश्न का उत्तर दिए अपना परीक्षा पत्र खाली लौटा देता है, तो उसे 5 में से 2 अंक मिलते हैं। जब उसने हैरान होकर इसका कारण जानना चाहा और पूछा कि एक भी सवाल का उत्तर नहीं देने वाले को शून्य अंक क्यों नहीं दिया जाता, तो उसे शिक्षक ने बड़ी प्यारी बात कही। शिक्षक का जवाब था : “हम एक इंसान को शून्य कैसे दे सकते हैं? हम उसे शून्य कैसे दे सकते हैं जो क्लास अटेंड करने के लिये ठंड के मौसम में बड़े सवेरे उठता है, सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करते हुए समय पर परीक्षा देने पहुंचता है और परीक्षा में प्रश्नों को हल करने की कोशिश करता है? उसने रातों को पढ़ाई की होगी और उसके तैयारी के लिये पैसा खर्च किया होगा। उसने जीवन के और कामों से ध्यान हटा कर अपनी पढ़ाई की होगी। क्या हम उसे इसलिए शून्य दे दें कि वह पूछे गये सवाल का उत्तर नहीं जानता? हम उसे शून्य न देकर कम से कम इस तथ्य का सम्मान करने की कोशिश करते हैं कि वह एक इंसान है, और उसके पास दिमाग है, और उसने कोशिश की। हम जो परिणाम घोषित करते हैं वह केवल परीक्षा के प्रश्नपत्र के प्रश्नों के लिए नहीं है, यह इस तथ्य की सराहना और सम्मान दिखाने के बारे में भी है कि छात्र एक इंसान है और वह स्कोर पाने का हकदार है।” बहुतों को यह दृष्टांत सच नहीं लगता। मगर यह ‘फेक’ नहीं है। कहानी होने पर भी उसकी अपनी सच्चाई है। इसमें हमें एक इंसान के तौर पर अपनी कीमत का पता चलता है। शून्य वास्तव में छात्र की प्रेरणा को खत्म कर सकता है, और उसमें अपनी पढ़ाई के प्रति वितृष्णा पैदा कर सकता है। एक बार उसकी अंक तालिका में शून्य आ गया तो उसे लगेगा कि वह असफल है। वह कुछ करने के काबिल नहीं है।

जीवन में असफलता भी महत्वपूर्ण होती है। यह सीखने और सिखाने की जरूरत है कि सफलता अंतिम नहीं होती और असफलता घातक नहीं होती। असफलता को स्वीकार करने का साहस होना चाहिये। जीवन जारी रहता है। एक सफल बैंकर से किसी पत्रकार ने उसकी सफलता का राज़ पूछा तो उसके कहा “दो शब्द”। वह क्या? “सही फैसले”। आप सही फैसले कैसे लेते हैं? “एक शब्द”। वह क्या? “अनुभव”। आप अनुभव कैसे पाते हैं? “दो शब्द”। और वे क्या हैं? “गलत फैसले”। इसका अर्थ हुआ कि लोग असफलता को कैसे लेते हैं यह महत्वपूर्ण होता है। यह सिखाई हमारी शिक्षा प्रणाली में जरूर शामिल होनी चाहिये।