विनय एक्सप्रेस, आलेख- राजेंद्र बोड़ा। भारत के लोग इस बार देश की आज़ादी की 75वीं सालगिरह के जश्न मना रहे हैं। केंद्र सरकार ने इस जश्न को ‘आज़ादी का अमृत महोत्सव’ नाम दिया है। इस जश्न को मनाने के लिए सभी राज्य सरकारें भी अपने-अपने स्तर पर जुटी हैं। स्वतंत्रता दिवस के इस उत्सव में बड़े पैमाने पर जन भागीदारी बनाने के लिए प्रधानमंत्री ने ‘हर घर तिरंगा’ अभियान की घोषणा की है। इस अभियान के तहत प्रधानमंत्री ने देश के नागरिकों से 13 से 15 अगस्त के बीच हर घर पर तिरंगा फहराने का आह्वान किया है। उनके मुताबिक इस अभियान से नागरिकों का तिरंगे के साथ रिश्ता और गहरा होगा “हम भारत के लोग”, जिन्होंने अपने आप को गणतांत्रिक संविधान दिया, ने अपने आजाद मुल्क के लिये तिरंगा झण्डा अपनाया में देशभक्ति की भावना और प्रबल होगी। 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटेन के ध्वज यूनियन जैक का उतरना और तिरंगे का फहराया जाना कोई रस्मअदायगी नहीं थी, वह इतिहास की करवट थी। इस झंडे के नीचे पूरा भारत और उसके सभी नागरिक बिना किसी भेद के आपसी सद्भाव के ताने-बाने में बुन गये थे। आज़ादी का अमृत महोत्सव वह समय है जब देश जवान होने लगा है। आज इसके नागरिकों में पहले से अधिक आत्मविश्वास है। वे अपनी मुट्ठी में अपनी तकदीर लिये आसमान की ऊंचाइयां छूने को तत्पर हैं। भले ही 75 वर्ष की यात्रा गणतंत्र भारत में जबरदस्त चुनौतियां, बाधाएं और मायूसियां भी रही मगर उसके कदम रुके नहीं। महोत्सव की सच्ची सफलता तभी होगी जब हमारे पूर्वजों ने आज़ादी की जंग में जैसा देश और समाज बनाने का सपना देखा था वह पूरा हो सके और महोत्सव के उल्हास में हर घर झण्डा फहरा कर यदि वह सपना साकार करने के लिए नई पीढ़ी को फिर से संकल्पबद्ध किया जा सके।
राष्ट्रीय ध्वज किसी भी देश की एकता, अखंडता, अस्मिता, गौरव और यहां के नागरिकों के आत्मसम्मान का प्रतीक होता है। वह देश को राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित करता है। बड़े-बड़े सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन किसी न किसी झंडे के नीचे ही होते आये हैं। मगर समूचे हिंदुस्तान का कभी एक झण्डा नहीं रहा। सभी रियासतों के अपने अपने अलग-अलग झंडे होते थे। अंग्रेजों के राज में ब्रिटेन का राष्ट्र ध्वज यूनियन जैक फहराता रहा किन्तु 1857 की सैनिक क्रांति के बाद पहली बार अपने साम्राज्य के इस देश के लिए अलग ध्वज बना कर यहां के लोगों को उससे जोड़ने की कोशिश की। इस ध्वज में ऊपर कोने पर यूनियन जैक तथा नीचे हिंदुस्तान का प्रतीक सूर्य का चिन्ह अंकित था। 1880 से 1947 तक यह ध्वज अविभाजित हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व करता रहा। आज़ादी की सुबह इसकी जगह संविधान सभा द्वारा अंगीकृत ध्वज ने स्थान लिया। 26 जनवरी 1950 को बीच में चक्र वाला यही तिरंगा गणतांत्रिक भारत का राष्ट्रीय ध्वज बना। मगर झंडा हमारे यहां हमेशा सत्ता के रुतबे का प्रतीक ही रहा। उसे श्रद्धा युक्त भय के साथ देशाहंकार के लिए उपयोग किया जाता रहा। आमजन के लिए वह सम्माननीय तो रहा मगर एक दूरी के साथ। लंबे समय तक माना जाता रहा मानो आम नागरिक के हाथ में आने से उसकी मर्यादा भंग हो जायेगी। इसलिए राष्ट्रीय ध्वज के साथ भारत के नागरिकों का व्यक्तिगत से ज़्यादा औपचारिक और संस्थागत रिश्ता ही अधिक रहा है। यही माना जाता रहा कि झण्डा फहराना तो मंत्रियों और बड़े अफसरों को ही शोभा देता है और वह अधिकार का प्रतीक है। ‘हर घर तिरंगा’ अभियान के बाद ये मिथक टूटेगा और आम नागरिक के राष्ट्रीय ध्वज के साथ संबंध ज़्यादा व्यक्तिगत हो सकने की उम्मीद की जा सकती है।
राष्ट्रीय ध्वज को हर घर पर फहराने के अभियान तक पहुंचने में हमें एक लंबा सफर तय करना पड़ा है जिसके दौरान कुछ ज़िद्दी नागरिक झण्डा फहराने का हक़ हासिल करने के लिए लड़ते हुए देश की सर्वोच्च अदालत तक गये हैं और न्याय पाया है। 23 जनवरी 2004 को, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 22 सितंबर 1995 के फैसले और आदेश के खिलाफ भारत संघ द्वारा दायर दीवानी अपील को खारिज कर दिया और माना कि संविधान के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत राष्ट्रीय ध्वज फहराना अभिव्यक्ति का प्रतीक है और नागरिक का अधिकार भी। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि प्रथम दृष्टया उन्हें कोई कारण नहीं दिखता कि इस देश के नागरिक राष्ट्रीय ध्वज को प्रदर्शित करके क्यों देशभक्ति व्यक्त नहीं कर सकते! इसी के चलते आम नागरिकों को अपने ही ध्वज से दूर रखने वाली ध्वज संहिता में सरकार को बदलाव करने पड़े। हमारे देश में कोई भी मुद्दा हो उस पर विवाद न उठे यह संभव ही नहीं है। अनेक बार विवाद अनुचित भी नहीं होते है। ऐसा ही एक विवाद सरकार द्वारा पिछले साल 30 दिसंबर को राष्ट्रीय ध्वज संहिता में किये संशोधन पर हुआ है। इसके पहले तक तिरंगा हाथ से काते गये और हाथ से बुने हुए खादी के कपड़े का ही हो सकता था। अब यह छूट दे दी गई है कि राष्ट्रीय ध्वज हाथ की कती बुनी खादी के अलावा मशीन द्वारा सूती/ पॉलिएस्टर/ ऊनी/ सिल्क के कपड़े से भी बनाया जा सकता है। इसका विरोध गांधीवादी संस्थाएं और लोग कर रहे हैँ। उनका वाजिब तर्क है कि खादी कोई उद्यम नहीं एक विचार है खादी ने करोड़ों लोगों को आर्थिक संबल और आत्मसम्मान देकर उन्हें विकास की धारा से जोड़ा है। हाथ से कते और बुने कपड़े से तिरंगे का निर्माण हमारी विरासत है जिसे यह संशोधन ध्वस्त करता है। मगर नई तकनीक जनित तथा बाज़ार पोषित अर्थव्यवस्था में ऐसी बातें टिकती नहीं। ऐसे में खादी के विचार के साथ समाज में काम करने वालों पर अधिक जिम्मेवारी आ गई है कि वे आम नागरिकों में यह भावना प्रबल बनाये रखें कि वे अपने घरों पर फहराने के लिए खादी से बने झंडे को प्राथमिकता देंगे। उन्हें भी मशीन से बने झंडों के प्रति वैसा ही लचीला रुख अपनाना होगा जैसा संविधान सभा ने स्वतंत्र हो रहे देश के लिए राष्ट्रीय ध्वज को अंगीकार करते हुए अपनाया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अशोक चक्र वाली तिरंगे को अपनाने का जो संकल्प रखा उसमें कहा गया कि झंडे की चौड़ाई से लंबाई का अनुपात “सामान्यत: 2:3 होगा”। नेहरू ने अपने भाषण में इसमें लिखे “सामान्यतः” शब्द को रेखांकित किया और कहा कि उसमें अवसर और स्थान के अनुरूप लचीलापन हो सकता है। हमारे संविधान निर्माता रूढ़िवादी नहीं थे और परिवर्तन के लिए सदैव तत्पर थे। भारत की स्वतंत्रता से कुछ दिन पहले 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने राष्ट्रीय ध्वज पर चर्चा के दौरान एक सदस्य एच.वी. कामथ ने ध्वज के बीच चक्र के अंदर स्वास्तिक को शामिल करने के लिए संशोधन प्रस्ताव पेश किया था। उनका कहना था कि चक्र के अंदर स्वास्तिक अंकित हो जाने से स्वास्तिक चिन्ह के रूप में अशोक के धर्म चक्र के साथ प्राचीन भारतीय संस्कृति का प्रतीक भी जुड़ जाएगा। किन्तु बाद में उन्होंने यह कहते हुए अपना संशोधन प्रस्ताव वापस ले लिया कि उन्हें महसूस होता है कि स्वस्तिक को ध्वज के डिजाइन में शामिल करने से यह घिच-पिच लगेगा। जिस प्रकार भारतीय संविधान उसके निर्माताओं ने लचीला बनाया वही भावना झंडे को अंगीकार करने में भी रही इसे भी समझना होगा।
नेहरू ने भारतीय ध्वज के लिए संविधान सभा में कहा यह ध्वज, जिसे मुझे आपके सामने प्रस्तुत पेश करने का सम्मान मिला है, किसी बादशाहत, साम्राज्य या प्रभुत्व का प्रतीक नहीं है। यह झण्डा सिर्फ हमारे लिए ही स्वतंत्रता का प्रतीक नहीं है बल्कि इसे देखने वाले प्रत्येक की स्वतंत्रता का प्रतीक है। नेहरू ने प्रस्ताव के साथ दो झंडे – एक रेशमी खादी का बना और दूसरा सूती खादी का बना – प्रस्तुत किये। जिण झंडों को संविधान सभा में नेहरू ने रखा उन्हें भारत की समस्त महिलाओं की ओर से हंसा मेहता ने यह कहते हुए भेंट किये थे कि “यह ध्वज महान भारत का प्रतीक बने, यह हमेशा ऊंचा फहराता रहे, और दुनिया में फैले अंधकार में प्रकाश के रूप में काम करे। यह उसके साये में रहने वालों के लिए खुशियां लाये”। इन दो ध्वजों को ऐतिहासिक धरोहर मानते हुए संविधान सभा ने उन्हें राष्ट्रीय संग्रहालय में सहेज कर रखने का संकल्प लिया।
संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज को अंगीकार करने के प्रस्ताव पर हुई बहस में राजस्थान के नेताओं ने भी अपना नाम दर्ज कराया। जोधपुर के शेरे राजस्थान कहलाने वाले जयनारायण व्यास और उदयपुर के डॉ. मोहन सिंह मेहता ने प्रस्ताव का समर्थन करने वाले अकेले नेता थे जिन्होंने अपने भाषण में भारत की राजसी रियासतों का जिक्र किया और कहा कि वे देसी रियासतों की तरफ से भी प्रस्ताव का समर्थन करते हैं क्योंकि वे भी स्वतंत्र देश का अभिन्न अंग बने रहना चाहती हैं। जय नारायण व्यास ने कहा यह हमारा राष्ट्रीय ध्वज है जो सभी समुदायों – हिंदू, मुस्लिम, सिख और पारसी – सभी का है।
प्रधानमंत्री ने लोगों से हर घर तिरंगा फहराने के साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपने खातों की प्रोफाइल पिक्चर के रूप में तिरंगा लगाने का भी आग्रह किया है जिसका असर नज़र भी आने लगा है। राष्ट्रीय ध्वज का यह उत्सव देश के सभी नागरिकों को आपस में मानवीय भाईचारे के धागे से जोड़ने में सफल होता है तो वह देश के लिए बड़ी सौगात होगी जिसकी आज बेहद जरूरत है।
अतिथि संपादक,
राजेन्द्र बोड़ा
(वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक)