धार्मिक वही, जो अपनाए धर्माचरण – डॉ. दीपक आचार्य

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विनय एक्सप्रेस समाचार, बीकानेर। हर व्यक्ति को अपने-अपने ढंग से जीने और उपासना का स्वतंत्र अधिकार है। यह उपासना किसी भी मत से संबंधित हो सकती है। आजकल धर्म और उपासना पद्धतियों का इतना अधिक घालमेल हो गया है कि हर आदमी अपने-अपने हिसाब से उपासना करने लगा है।

धर्म के इस क्षेत्र में जितना अधिक प्रदूषण हाल के वर्षों में देखा गया है उतना इससे पहले कभी नहीं रहा। न मौलिकता रही है, न धर्म शास्त्रीय कोई आधार। हर कोई अपने-अपने हिसाब से मनमाने तौर पर अपने-अपने कारोबारों को मान्यता देने के लिए धर्म की आड़ में वह सब कुछ करने लगा है जिसे अधर्माचरण की श्रेणी में गिना गया है।

धर्म विराट शब्द है जो प्रत्येक जड़ और चेतन का मूल गुण है जबकि उपासना पद्धतियों में भिन्नता स्वाभाविक है। धर्म वह है जिसे धारण करने पर उसका मौलिक स्वभाव और विशिष्ट गुण-धर्म बना रहता है। धर्म छोड़ देने पर उसका रंग, रूप, शब्द, स्पर्श, रस, गंध आदि की मौलिकताएं अपने आप नष्ट हो जाया करती हैं और ऐसे में वह अपनी पहचान खो देता है।

आजकल धर्म के नाम पर चारों तरफ खूब हो हल्ला हो रहा है। धर्म के मूल मर्म से अनजान लोग धर्म की अपने-अपने ढंग से व्याख्या करने को ही विद्वत्ता समझ बैठे हैं। धर्म अपने आप में वह शाश्वत चिंतन है जो जात-पात, उपासना, शरीर, वर्ण, मत-सम्प्रदाय से परे तो है ही, यह सार्वदेशिक, सार्वकालिक, सार्वभौमिक सत्य भी है।

इंसान का सर्वोपरि धर्म इंसानियत को अपनाकर लोकमंगलकारी दिशा-दृष्टि के साथ काम करना है।  आग का धर्म जलाना है, पानी का धर्म भिगोना है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के प्रत्येक तत्त्व, प्राणी और जीवात्माओं के अपने-अपने धर्म है जिन पर पूरी दुनिया टिकी हुई है। इनमें से कोई भी अपना धर्म छोड़ दे तो प्रलय ही मच जाए।

आजकल धर्म और उपासना पद्धतियों को पूरक या पर्याय मानकर देखा जा रहा है। लोग अपने आपको धार्मिक कहलाना तो चाहते हैं, धार्मिक होने के सारे उल्टे-सीधे आकर्षक स्वाँग भी रचते रहते हैं मगर अपने जीवन में जो-जो काम करते हैं वे सारे के सारे धर्मविरूद्ध हैं। अपने आस-पास रहने वाले धार्मिकों, भक्तों और साधक लोगों को देखें और यह मूल्यांकन करें कि वे अपने जीवन में कितने फीसदी धर्म का पालन करते हैं।

मनुष्य की ही बात करें तो उसका धर्म मनुष्यत्व है और उसे इंसानियत के सिद्धान्तों का पूरा-पूरा परिपालन करना ही चाहिए। लेकिन हममें से कितने लोग ऐसे हैं जो धर्म का पालन करते हैं। धर्म का पालन करने के नाम पर हम यज्ञोपवीत, मालाएं, कण्ठियां, कड़े, जात-जात के रंगों के धागे, गण्डे, ताबीज, भगवान के नाम लिखे ब्रेसलेट, रामनामी और कृष्णनामी या शिवनामी शालें, उपरणे, रक्ताम्बर, नीलाम्बर, पीताम्बर और जाने कितने तरह के परिधान पहन कर घूमते हैं, तिलक छापों से देह को आकर्षण दे डालते हैं, पूरे शरीर पर भस्म मलते हैं और कितनी तरह के स्वाँग रचकर निकलते हैं।

हममें से खूब सारे लोग अपने घरों में जिस सहजावस्था में रहते हैं उसके मुकाबले सौ गुना असहज होकर बाहर निकलते हैं और जाने किन-किन देवताओं के नाम पुकारते हुए अभिवादन करते रहते हैं। हमारा दोगलापन यही है कि हम जैसे हैं वैसे न दिखते हैं, न दिखाना चाहते हैं। दुनिया को हम वो सब दिखाना चाहते हैं जो दुनिया को पसन्द है। और इसलिए हम सारे के सारे बहुरूपिया स्वाँग को अपनाने में डूबे रहते हैं।

आजकल धर्म और कर्मकाण्ड के नाम पर हम जो कुछ कर रहे हैं वह सारा का सारा दिखावे के अलावा कुछ भी नहीं है और यही कारण है कि हम धर्म और अनुष्ठानों के प्रचार को लेकर सर्वाधिक चेतन और गंभीर रहा करते हैं।

इंसान की जिंदगी में दोहरापन ही सारी समस्याओं का कारण है। हम लोग धार्मिक होने का बहुरूपिया आडम्बर ही करते हैं। हममेंं से अधिकांश लोग धर्म की सिर्फ बातें करते हैं, धर्म के नाम पर औरों को गुमराह करते हैं और अपने स्वार्थों की पूर्ति में धर्म तथा इससे जुड़ी परंपराओं को बेशर्मी के साथ भुनाते हैं मगर जहाँ धर्म को अंगीकार करने और समझने की जरूरत पड़ती है वहाँ अत्यन्त उदारवादी होकर धर्म के परित्याग के लिए सदैव तत्पर रहा करते हैं।

धार्मिक होने का आरंभिक चरण यही है कि व्यक्ति मानवतावादी गुणों का पर्याय हो, प्राणी मात्र के प्रति संवेदनशील हो, सेवा और परोपकार को जीवन का परम लक्ष्य मानने वाला हो, दुष्टों को भयभीत करने वाला और सज्जनों से अनुराग करने वाला हो।

धार्मिक व्यक्ति या भक्त स्वप्न में भी कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाता। उसकी दृष्टि सदैव कल्याणकारी होती है। एक इंसान जिसमें मानवता, संवेदनशीलता और मानवीय गुणों का लेशमात्र भी अंश न हो, सामने वालों का शोषण करे, चोरी-डकैती, अपराध, बेईमान, हराम का धन, परायी जमीन-जायदाद हड़पने वाला हो, अतिक्रमणकारी हो, पुरुषार्थहीन हो, भ्रष्टाचार से पैसे कमाने वाला हो, काली कमायी में रुचि रखने वाला हो, दूसरों को डरा-धमकाकर पैसे ऐंठने वाला हो, अपने संपर्क में आने वालों को किसी न किसी प्रकार से पीड़ा देता हो, रिश्वत खाता हो, अपनी लोकप्रियता और पद वैभव को बरकरार रखने के लिए दिन-रात झूठ-फरेब और दुराचारों का प्रयोग करते हुए लोगों को भ्रमित करने का आदि हो, वह न धार्मिक हो सकता है, न धर्म प्रवाह के आस-पास फटकने का पात्र ही हो सकता है।

ऐसे लोग चाहे कितने ही धार्मिक आडम्बरों में रमे रहें, घण्टों तक भगवान की डेरी पर नाक रगड़ते रहें, गौमुखी में हाथ डाले मालाएं गिनते रहें, कितने ही वैदिक ऋचाओं भरे स्रोतों, पौराणिक  मंत्रों और श्लोकों का चिल्ला-चिल्ला कर ऊँचे स्वरों में गान करते रहें, गला फाड़-फाड़ कर आरती करते रहें, मन्दिरों के गर्भगृह में घण्टों बैठकर भगवान के समीप होने का भ्रम पालते रहें, कई मन घी होमते रहें, इन्हें धार्मिक नहीं कहा जा सकता है। ऐसे लोगों को आडम्बरी, पाखण्डी और नौटंकीबाज कहना ज्यादा उपयुक्त होगा।

धार्मिक होने का अर्थ है इंसान में इंसान के लिए विहित कर्म, वाणी और व्यवहार तो हों ही, वह दैवीय गुणों की ओर निरन्तर गतिमान होना चाहिए। हम जिस किसी देवी या देवता की उपासना करते हैं उनके गुणों का अनुभव हमारे जीवन में न हो तो हमारे धार्मिक होने का कोई अर्थ नहीं है, ऐसा धार्मिक होना टाईमपास व निरर्थक ही है। इससे न हमारी काया का कल्याण हो सकता है, न समाज और सृष्टि के लिए हम उपयोगी बन सकते हैं।

सिद्धान्तों, आदर्शों, नैतिक मूल्यों और संस्कारों के साथ जीवन के हरेक कर्म में सदाचार पालन, सत्य संभाषण और सकारात्मक सोच के साथ काम करने के धर्म का जो अनुकरण करता है वही धार्मिक है और ऐसे धार्मिकों के लिए किसी मन्दिर में जाने की जरूरत नहीं होती, वह स्वयं अपने आप में चलता-फिरता देवालय ही होते हैं।

धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के बारे में ज्ञान और मार्गदर्शन देने का काम बाबाओं, महंतों, कथावाचकों और पण्डितों का है लेकिन कुछ अपरिग्रही एवं सनातन संस्कृति के लिए समर्पित महात्माओं को छोड़ दिया जाए तो शेष सारे अपनी लोकप्रियता, धन-सम्पदा जमा करने और आश्रमों, मठ-मन्दिरों के भौतिक विकास, राजनेताओं और अपराधियों को अपने आशीर्वाद और गोपनीय अनुष्ठानों से प्रश्रय देने वाले और धर्म के नाम पर हर संभव कारोबार को बढ़ावा देने में दिन-रात भिड़े हुए हैं।

समाज और देश की बुराइयों, कुप्रथाओं तथा आसन्न खतरों के प्रति इनका मुँह कभी नहीं खुलता। अपने सामाजिक एवं राष्ट्रीय सरोकारों के निर्वहन के प्रति ये हमेशा तटस्थ और घोर उदासीन बने रहते हैं।