दृष्टिबोध बगैर नहीं हो सकता कोई रचनाकार : राइटर्स मीट में बोले आशीष पुरोहित

विनय एक्सप्रेस समाचार, बीकानेर। युवा कवि आशीष पुरोहित ने बुधवार को साहित्य अकादेमी की राइटर्स मीट में कहा कि एक रचनाकार के पास जो सबसे महत्वपूर्ण होता है, वह होता है दृष्टिबोध। जिसके पास दृष्टि और बोध नहीं है, उसका लेखक तो क्या एक अच्छा पाठक बनना भी संदिग्ध है।
साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के सभागार में आयोजित राइटर्स मीट में राजस्थानी भाषा का प्रतिनिधित्व करते हुए आशीष पुरोहित ने यह कहा। आशीष ने कहा कि उनकी रचना प्रक्रिया में खुद से सवाल करना एक महत्वपूर्ण तत्त्व है, मैं लगातार अपने आप से सवाल करता रहता हूं, जो मिलता है वही मेरा प्रस्थान बिंदु होता है।


उल्लेखनीय है की मंगलवार को आशीष पुरोहित की राजस्थानी काव्य कृति ‘अैनांण’ के लिए साहित्य अकादेमी का प्रतिष्ठित युवा पुरस्कार अर्पित किया गया था। बुधवार को सभी 24 भारतीय भाषा के युवा रचनाकारों ने अपने अनुभव बांटे। कार्यक्रम की अध्यक्षता अकादेमी के उपाध्यक्ष माधव कौशिक ने की। कौशिक ने कहा कि देश का युवा सृजन न सिर्फ रचनात्मक है बल्कि जिम्मेदारी से भरा भी है।

राजस्थानी में युवा पुरस्कार से समादृत  आशीष पुरोहित ने राइटर्स मीट में यह पढ़ा…

राइटर्स मीट के लिए राजस्थानी प्रतिनिधि आशीष पुरोहित
यही मेरी शर्त, यही जुनून, यही चुनौती है…- आशीष पुरोहित

आदरणीय मंच को प्रणाम। प्रणाम है उसे युवा ऊर्जा को जो अपनी-अपनी भाषा का प्रतिनिधित्व करते इस सभागार में जोत की तरह अपनी चैतन्यता से आल्हादित कर रही है। इस जोत से जोत मिलने से मैं कितना उत्सुक हूं, यह मेरे उत्साह से समझ आ रहा होगा। वाकई मैं बहुत खुश हूं, क्योंकि मेरी जिस मातृभाषा को सरकारों ने फुटबाल बना रखा है, उसी भाषा को यहां एक गरिमापूर्ण आसन मिला है। इस सत्कार से मैं अभिभूत हूं। साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की मान्यता प्राप्त 24 भारतीय भाषाओं में राजस्थानी का होना ही एकमात्र वजह है कि राजस्थान के सदूर पश्चिम का एक ग्रामीण को इस मूल्यवान मंच से अनमोल सत्र को में बात कहने का मौका मिल रहा है।
एक बार फिर भरे कंठों से साहित्य अकादेमी का आभार।
मेरी बात कहते हुए मैं यह कहने से कतई संकोच नहीं करता हूं कि भाषा के संस्कार के बगैर साहित्य की जाजम पर बैठना भी अपराध है। फिलहाल, मैं साहित्य की इसी शर्त को निभाने के प्रयास में हूं।
एक सवाल कई बार पूछा जाता है
पहले आपने लिखना शुरू किया या पढऩा?
यह सवाल वैसा ही है, जैसे हम किसी को उलझाने के लिए पूछ लेते हैं कि पहले मुर्गी आया या अंडा। जब-जब मेरी साहित्य की संगत में इस सवाल से मुठभेड़ हुई तो हमेशा मैंने पाया कि मैने शुरू तो पहले लिखना किया था, लेकिन सीखने के लिए पढऩा पड़ा। दिखने में यह जितना सरल और विनम्र-सा वाक्य है, हकीकत में उतना ही उलझा हुआ और हां, अहंकार से भरा भी। दरअसल, हम और खासतौर से जब हम रचनाकार होते हैं तब यह समझ ही नहीं पाते कि कब तो हम लिख रहे हैं और कब पढ़ रहे हैं। यह संशय नहीं, चिरंतन सत्य है, जिसे जितना जल्दी स्वीकार कर लिया हमारी रचना-प्रक्रिया उतनी ही जल्दी सहज हो जाएगी।
यहां तब आते-आते जब मुझे मेरी भाषा में साहित्य अकादेमी का प्रतिष्ठित युवा पुरस्कार दिया जा रहा है तब भी मुझे यह समझ नहीं आ रहा है कि अगर मैं लिख भी रहा हूं तो क्या वह लिख पा रहा हूं जो मैं पढऩा चाहता हूं। इसी मंथन में जब मैं आगे निकलता हूं तो सोचता हूं कि क्या मैं यह समझ गया हूं कि मुझे पढऩा क्या है। क्या हर वह व्यक्ति जो कुछ पढऩे के बाद अनिर्वचनीय  स्थिति में आ जाता है। गूंगे का गुड़ हो जाता है। नई हिंदी में कहूं तो सर्किट उड़ जाते हैं, क्या यह पढऩे से पहल ही तयशुदा होता है।
नहीं ना। फिर क्या होता है।
जवाब बरामद होता है। कौतुहल। लेखक और पाठक के बीच यही एक रिश्ता होता है। कौतुहल का रिश्ता। वह जब तक इस रिश्ते को बनाए रखता है, लेखक रहता है। जैसे ही पाठक उस कौतुहल को पा लेता है, लेखक पर सवारी कर लेता है। दरअसल, लेखक और पाठक के बीच एक अघोषित रेस चलती रहती है। यह रेस आप टीवी देखती अपने घर की महिलाओं को देखते हुए देख सकते हैं। किसी चलते सीरीयल में इस तरह की भविष्यवाणियां होती हैं, इसने बुरा किया है। इसके साथ ऐसा नहीं होना चाहिए और कई बार तो सीरीयल के क्लाइमैक्स तक पर दावं लग जाते हैँ।

अगर दावं सही गए तो लेखक हारा। दाव झूठा गया तो पाठक हारा। पाठक हारते ही लेखक की दूसरी किताब का इंतजार शुरू हो जाता है और लेखक हारते ही हारता चला जाता है। इसे बाजार के गणित से समझा जा सकता है, लेकिन यहीं से रचना-प्रक्रिया एक संकरी गली से निकलने का इशारा करती है। यही संकरी गली है जो आगे जाकर बड़े चौक में और फिर इस तरह किसी विशाल मैदान तक पहुंचा देती है, जहां लेखक निपट अकेला होता है, लेकिन उसे चाहने वाले, समझने वाले, मानने वाले लाखों होते हैं।
लेकिन क्या जिसे लाखों ने पढ़ा वह लेखक हुआ, जिसे किसी ने नहीं पढ़ा वह लेखक नहीं हुआ। वह लेखक नहीं हो सका, जो नहीं छपा और जो छप गया वह लेखक हो गया। आखिर वह क्या है, जो किसी को लेखक बनाता है, कम से कम यह चाहत से जुड़ा हुआ मसला तो है ही नहीं कि बाजार से एक अच्छा सा पेन और डायरी खरीदते ही कोई लेखक हो गया।
फिर यह तो लेखक बनने की शर्त भी नहीं है कि कोई डायरी खोलकर बैठे, पेन भी अच्छा चलता हो और अगले ही क्षण वह लिखने भी लगे। इसके अगले क्षण उसे लेखक भी मान लिया जाए। लेखक होना तो कुछ और ही होना है।
यकीन मानिये बतौर लेखक इस कुछ और ही होने की यात्रा के मैं एक यात्री भर हूं, जिसके लिए लिखना जुनून जरूर है, लेकिन अपने ही लिखे हुए को बेदर्दी से फाड़ देना भी मेरा ही शगल है।
मुझे मेरा लिखा जब तक नहीं सुहाता, उसे नहीं स्वीकार करता। यही मेरी शर्त है, यही मेरा जुनून है, यही मेरा चुनौती है। यही वजह है कि भले ही लिखना मैंने पहले शुरू किया, लेकिन उस लिखे हुए को कभी जाहिर करने का साहस नहीं हुआ, क्योंकि मेरा जो पढऩा मुझे घुट्टी में मिला था, वह मेरे लिखे हुए का लगातार मुंह चिढ़ाता रहा।
हमारी राजस्थानी में एक कहावत है, नर नन्नाणे पर। हिंदी में इसे समझाने के लिए इतना ही काफी है कि नर यानी मर्द के संस्कार ननिहाल से जुड़े होते हैं। मेरे नानाजी गोपीकिसन जी जोशी की लायब्रेरी से मेरी गर्भनाल जुड़ी थी, पढऩे से कैसे अलग हो पाता। लक्ष्मीकुमारी चूंडावत, रामकुमार ओझा, करणीदान बारहठ, चंद्रसिंह बिरकाली जैसे साहित्याकाश के दमकते नामों से समृद्ध राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के नोहर कस्बे से मैं आता हूं, जहां मुझे न सिर्फ अपनी मातृभाषा के लिए लिखने की प्रेरणा मिलती है बल्कि एक ऐसा माहौल भी मिलता है, जिसमें रहते हुए मैं गालिब से लेकर मीर और फैज से लेकर मंटो तक की बात कर सकूं। मानस की चौपाइयों का अवगाहन करते बड़े होते मेरे मन में महाभारत के पात्र द्वंद्व मचाते हैं तो सत्यप्रकाश जोशी की ‘राधा’ सोचने के लिए एक खुला आकाश देती है। यहां तक आते-आते मुझे लगता है कि एक रचनाकार के पास जो सबसे महत्वपूर्ण होता है, वह होता है दृष्टिबोध।
इस बीच सभी तरह के सवालों का जवाब देने के लिए ओम पुरोहित ‘कागदÓ मिलते है और मधु आचार्य ‘आशावादीÓ की सहजता से कही दार्शनिक सूक्तियों से अनुभव लेता मेरा लेखक बजाय मुखर होने के और सहमा सा रहने लगा। इतना, ऐसा और इस तरह कैसे लिख पाऊंगा ?
किसी भी रचनाकार की यही कसौटी होती है कि वह लिखते समय साहस और संकोच का कितना बेहतर संतुलन साध सकता है, लिखते समय लेखक को जितना संकोची होना चाहिए, अभिव्यक्ति में उतने ही साहस की जरूरत होती है। राजस्थानी मेरी मातृभाषा है, लेकिन हिंदी और उर्दू से भी गहरा लगाव है। भाषा का यह लगाव साहित्य के जगत में प्रवेश करने का आधार बना, क्योंकि भाषा का मिजाज समझना हो तो साहित्य में उतरना होगा। वरना कोई भी भाषा महज बोली से आगे कुछ नहीं है।
हमारी राजस्थानी भाषा की ही बात करें। अगर इसके पास अपनी प्रचुर साहित्य नहीं हो। मीरां नहीं हो। रासो नहीं हों तो इसे बोली कहा जा सकता है। जा सकता है क्यों, कहा जा रहा है। इसीलिए तो संवैधानिक मान्यता नहीं है मेरी भाषा को। भला हो साहित्य अकादेमी का कि मेरी मातृभाषा को अपनी मान्य भाषाओं की सूची में शामिल किया गया है, लेकिन इतने भर से क्या होता। हमारे प्रदेश में जब राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिए जाने का आंदोलन शुरू हुआ तो राजस्थानी के समकालीन साहित्य पर लिखे जाने की जरूरत भी जताई गई और यही वह प्रस्थान बिंदु था कि मैंने कलम उठाई। प्रारंभ आलोचना से किया, फिर कविताएं लिखीं। कुछेक कहानियां भी ड्राफ्ट की, लेकिन अभी भी लगता है कि बजाए जल्दबाजी के कुछ और ठहराव लेना चाहिए।
मेरी नजर में ठहराव वस्तुत: पकाव है। पकने की प्रक्रिया है, जो हर रचनाकार के मन में हर समय चलती रहती है। कुछ न कुछ पकता रहता है। इस पकने को आंच देना ही आसपास के परिवर्तनों से अवगत रहना है। वही होने का प्रयास कर रहा हूं। अपने आसपास के परिवर्तनों को जाने बगैर हम किसी भी सूरत में कुछ नया और कुछ बेहतर नहीं कर पाएंगे। भले ही परिवर्तन एक छलावा हो, नयापन सिर्फ भ्रम हो, लेकिन है कुछ जो आकर्षित करता है वरना वेद व्यास ने जब महाभारत के प्रारंभ में ही कह दिया कि जो सृष्टि में है वह जय में है, जो जय में नहीं है वह सृष्टि में भी नहीं है। तो फिर लिखने की क्या जरूरत हुई।
यह जरूरत जो शब्द है ना, वह मूल रूप से रचनाकार के रचनाकार होने की पहचान है। लिखते हुए जो रचनाकार यह सोचता है कि इसकी जरूरत क्या है, और इसी आधार पर अगर वह अपनी रचना को पकाता है तो मेरी नजर में वह एक श्रेष्ठ रचनाकार है, भले ही वह पूरी जिंदगी में कुल जमा एक किताब कविताएं या कहानियां ही नहीं लिख पाया हो।
मैं इस जगह पर जब आकर देखता हूं तो लगता है कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है बल्कि इसे यूं भी समझा जा सकता है कि नाकुछ भी नहीं हुआ है।  मैं उत्सुक हूं देश की इस युवा संगत के बीच खुद को खड़ा पाकर, लेकिन क्या मैं, क्या हम सारे जिस बात को लेकर उत्सुक हैं, देश भी उत्सुक है। समाज भी गर्वित है। हम जहां खड़े हैं, वहां से हमारे साहित्यकार होने का मार्ग-प्रशस्त हो रहा है। कल से हमें अकादेमी के युवा अवार्डी के रूप में पहचान मिलने वाली है, प्रशासन और सरकार का हमें देखने का नजरिया बदल जाएगा।
क्या हम अपने आपको देखने के नजरिये में बदलाव करेंगे।
क्या हम यह मानेंगे कि अब हमारे रचे हुए को देखने का नजरिया बदल चुका है तो हम भी अपने रचे हुए के प्रति आत्ममुग्ध होने से बचें। इस तरह के बहुत सारे सवाल हो सकते हैं, लेकिन महत्वपूर्ण सवाल नहीं होते। उनके जवाब भी नहीं होते। महत्वपूर्ण होती है जिज्ञासा, मेरी जिज्ञासा आने वाले समय के साहित्य को लेकर है। मेरी जिज्ञासा इस युवा-संगत के संकल्प पर टिकी हुई है। मैं चाहता हूं कि साहित्य की यह संगत सलामत रहे।
राजस्थानी साहित्य में जिस कृति ‘अैनांणÓ के लिए मुझे युवा पुरस्कार मिल रहा है, उसे फिर से जब पढ़ रहा हूं तो इसकी कई काव्य-भंगिमाओं से मैं खुद को असहमत पाता हूं। कभी लगता है कि क्या हो जाता गर ये कविताएं कुछ और पक जाती। और जैसा कि हर रचनाकार के साथ होता है, मेरे साथ भी होता है कि मुझे लगता है इससे बेहतर हो सकता है। और अब जबकि मुझे अपनी भाषा में लिखे हुए पर युवा पुरस्कार मिला है तब अपेक्षा भी बढ़ेगी और जिस बेहतर होने की बात में कह रहा हूं, उसे साबित भी करना होगा।
मुझे लगता है कि मेरी काव्य-कृति ‘अैनांणÓ एक बीता हुआ पड़ाव है। बीते हुए समय की कविताएं, क्योंकि जिस समय में आज मैं खड़ा हूं-वहां के अनुभव ही नहीं बल्कि संदर्भ भी बदल चुके हैं। इस बदलाव को मैं देख सकूं, अभिव्यक्त कर सकूं और हां, संप्रेषित कर सकूं, यह आशीष लेकर फिर से अपनी माटी में लौटना चाहता हूं।
आशा है आपका आशीर्वाद मुझे मिलेगा।