जानिए विधानसभा अध्यक्ष को क्यूं आता है गुस्सा ! वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक राजेन्द्र बोड़ा की कलम से

विनय एक्सप्रेस एडिटोरियल। राज्य विधानसभा में जहां कभी “झूठ’ शब्द भी असंसदीय माना जाता था और जिसकी जगह “असत्य” का प्रयोग होता था वहां जिस प्रकार का व्यवहार और भाषा का उपयोग होने लगा है उसी पर आज विनय एक्सप्रेस के सुधि पाठकों हेतु वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक श्री राजेन्द्र बोड़ा का अतिथि संपादकीय प्रस्तुत हैं :

विधानसभा में जिस प्रकार सदस्यों का आचरण हो चला है वह सबसे बड़ा सिरदर्द सदन के अध्यक्ष के लिए होता है। यह अध्यक्ष का दायित्व होता है कि सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से नियमानुसार चले। जब कोई सदस्य या बहुत से सदस्य इस प्रकार व्यवहार करने लगें जिससे सदन की कार्यवाही बाधित हो उठे तब अध्यक्ष को कड़ा रुख अपनाना पड़ता है और बाधा डाल रहे सदस्य या सदस्यों पर अनेक बार कार्यवाही करनी भी लाज़मी हो जाती है। विधानसभा के अध्यक्ष का पद गरिमा का होता है। अध्यक्ष पर उस सदन को चलाने की जिम्मेवारी होती है जहां लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए लोकतान्त्रिक तरीके से विमर्श करने के वास्ते राज्य के नागरिकों के निर्वाचित प्रतिनिधि बैठते हैं। विधानसभा के नियम सदन स्वयं बनाता है। ये नियम परंपराओं से भी बनते हैं। पिछले काल में सदन ने किस प्रकार कोई निर्णय लिया या किसी अध्यक्ष ने क्या निर्णय दिया ये सब परंपरा का हिस्सा होते हैं। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि “संसदीय लोकतंत्र में अध्यक्ष सदन की गरिमा और स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करता है, और क्योंकि सदन देश का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए स्पीकर एक तरह से देश की स्वतंत्रता और स्वतंत्रता का प्रतीक बन जाता है।” जो बात नेहरू ने लोकसभा अध्यक्ष के लिए कही वही बात राज्य विधानसभा के अध्यक्ष पर भी लागू होती है। पिछले दिनों राज्य विधान सभा में कांग्रेस को समर्थन दे रहे एक निर्दलीय विधायक जिन्हें मुख्यमंत्री का सलाहकार बनाया हुआ है के आचरण और उस पर विधानसभा अध्यक्ष द्वारा “थ्रो हिम आउट” (उन्हें बाहर फेंक दो) कहते हुए सदन से बाहर निकालने का मर्शाल को आदेश देने की घटना हमें बदलते लोकतान्त्रिक व्यवहारों के संकेत देती है। राज्य विधान सभा में जो कुछ हुआ उससे आमजन में निर्वाचित सदन की छवि को धक्का ही लगा है। क्योंकि अध्यक्ष का काम सदन में व्यवस्था और मर्यादा बनाए रखने का होता है इसलिए उसका अपना व्यवहार ऐसा गरिमामय होने की अपेक्षा स्वभावतः होती है जिसे देख कर सदन के सदस्य उनका अनुसरण करें। सदन में कितना भी तनाव हो जाए और उत्तेजित सदस्य आपे से बाहर होकर मर्यादाएं भूल जाएं तब भी खुद बिना उत्तेजित हुए शांत बने रह कर सदन का संचालन करने की जिम्मेवारी अध्यक्ष पर आ जाती है। एक प्रकार से उसे सदन का सबसे धीरज वाला सदस्य होने का परिचय देना होता है। अनेक बार ऐसे मौके आ जाते हैं जब उसका धीरज जवाब देने के हालात बन जाते हैं। ऐसे में ही सदन के अध्यक्ष के आसन पर बैठे व्यक्ति की परीक्षा होती है। ऐसा नहीं है कि राज्य विधान सभा के पिछले 14 कार्यकालों में बड़े हंगामे नहीं हुए हों। विभिन्न काल के अध्यक्षों ने जब भी सदन में व्यवस्था बिगड़ी और कार्यवाही में बाधा पड़ी तब कडा रुख अपनाया मगर कभी किसी अध्यक्ष ने अपना धीरज नहीं खोया। कभी गुस्से का इजहार नहीं किया। कह सकते हैं कि राजस्थान विधानसभा के इतिहास में किसी भी अध्यक्ष ने किसी भी उत्तेजना के माहौल में कभी “रिंग मास्टर” जैसी भूमिका नहीं निभाई। राज्य विधान सभा के अध्यक्ष रहे पूनमचंद विश्नोई ने एक बार किसी मुद्दे पर सदन में कहा था कि “अध्यक्ष को स्पीकर कहा जाता है, किन्तु उसका काम सबसे कम बोलना होता है।” वे यह भी मानते थे कि अनेक बार सदस्य “सदन के कार्य संचालन नियमों से बाहर जाकर तुरंत अपनी बात कहने की अधीरता दिखाते हैं।” चतुर अध्यक्ष सबको थोड़ी ढील देते हुए सामंजस्य बनाए रख कर सदन को सुचारु रूप से चला लेता है। यह भी सच है कि सदन को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेवारी बहुमत वाले हां पक्ष की होती है। इस घटनाक्रम में एक प्रकार से सत्ता समर्थक विधायक जो मुख्यमंत्री का अधिकृत सलाहकार पद भी ग्रहण किए हुए है ने अध्यक्ष की व्यवस्था नहीं मानी। सदन के संचालन की प्रक्रिया के नियमों में ऐसी व्यवस्था है कि कोई भी सदस्य यदि किसी मंत्री के जवाब से संतुष्ट न हो तो उस पर आगे चर्चा करवा सकता है मगर वह चर्चा किसी प्रस्ताव के जरिये ही हो सकती है। प्रस्ताव लाकर और उसके लिए निर्धारित समय पर अपनी बात कहने का धीरज अब कोई विधायक नहीं दिखाता। सदन में अधिकतर मानले जिन पर हंगामा होता है वे जनता के मुद्दे ही होते हैं। उन पर यदि मंत्री अपना जवाब अपने को सर्वज्ञ मान कर न दे और और ऐसा व्यवहार रखे जिससे सामने वाले को लगे कि उसकी बात को समझा जा रहा है तो हालात नहीं बिगड़ते। मगर जब दोनों तरफ से बाहें चढ़ी हों तब अध्यक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि सदन की कार्यवाही का सुचारु संचालन उनके हाथ में होता है।

सदन में यह घटना जिसमें अध्यक्ष का गुस्सा स्पष्ट नज़र आया के बारे में कोई दो राय नहीं हो सकती कि अध्यक्ष सदन को सुचारू रूप से चलाना चाहते थे और सदस्य उनके आदेश की अवमानना कर रह थे। संसदीय मर्यादा यह होती है कि जब अध्यक्ष ने कोई निर्णय दे दिया तो उसकी पालना की जाए। संसदीय मर्यादा तो यहां तक है कि जब आसन पैरों पर हो तब सदन के सभी सदस्यों को अपने अपने स्थान पर बैठ जाना चाहिए। लेकिन हमारा संसदीय लोकतंत्र भीडतंत्र में तब्दील होता जा रहा लगता है। अध्यक्ष का सदस्य को सदन से बाहर करने का आदेश देते हुए मार्शल से “थ्रो हिम आउट” शब्दों का उपयोग करते हुए कहना अध्यक्ष की गरिमा के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। “थ्रो हिम आउट” का अर्थ है “बाहर फेंक दो”। इन शब्दों की जगह अध्यक्ष अंग्रेजी में “गेट हिम आउट” भी कह सकते थे कि (इन्हें बाहर निकाल दिया जाए)। एक निर्वाचित प्रतिनिधि के लिए अध्यक्ष के शब्द “थ्रो हिम आउट” भले ही विधान सभा में मान्य हो मगर जनता की अदालत में वे अमर्यादित माने जाएंगे। सामान्य शिष्टाचार ही नहीं वैधानिक व्यवहार भी इसकी इजाजत नहीं देता। अध्यक्ष को यदि किसी सदस्य के आचरण पर आपत्ति है तो वह उसे टोक सकता है। टोकने पर वह न माने तो अध्यक्ष चेतावनी दे सकता है कि वह उसका नाम लेकर पुकारेगा। अध्यक्ष द्वारा किसी सदस्य का नाम लेकर पुकारना उसकी निंदा करना होता है। यह सारा होने पर भी यदि अध्यक्ष को लगे कि कोई सदस्य अव्यवस्था बना रहा है तो वह उसे सदन से बाहर जाने का आदेश दे सकता है। यदि इस आदेश की वह सदस्य पालना न करे तब अध्यक्ष मार्शल को बुला कर उस सदस्य को सदन से बाहर ले जाने का कह सकता है। मगर ऐसा दुर्लभ से दुर्लभ स्थिति में होता है। मुद्दे को उठाने वाला सदस्य आवेश में आ जाए यह तो समझ में आता है किन्तु अध्यक्ष गुस्सा कर बैठे या अपना आपा खो बैठे ऐसा लोकतांत्रिक संसदीय परंपरा में नहीं होता। अध्यक्ष की कुर्सी को “आसन” कहा जाता है। “आसन” ऋषि का होता है। “आसन” देवता का होता है। ऐसी गरिमा दी गई है सदन के अध्यक्ष की कुर्सी को। भारतीय संविधान की धारा 178 के तहत यह एक संवैधानिक पद है। वह विधान सभा के सदस्यों की सामूहिक आवाज का प्रतिनिधित्व करता है। वह उनका एकमात्र प्रतिनिधि होता है। इसलिए आसन पर बैठने वाला व्यक्ति संवैधानिक मर्यादाओं से बंधा होता है और उस पर महत्ती जिम्मेवारी आ जाती है। मगर लोक में वर्तमान अध्यक्ष की छवि उनके काम करने के तरीकों तथा व्यवहारों से ऐसी बनी हुई है कि वे तुनकमिजाजी हैं। पिछले साल एक काबीना मंत्री के व्यवहार से वे इतने क्षुब्ध हुए कि सदन की कार्यवाही ही अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दी। हालांकि दूसरे दिन उन्होंने सदन की बैठक फिर आहूत कर ली। उनका यह व्यवहार जहां यह दर्शाता है कि वे सदन में नियमों की कड़ाई से पालना करवाने के अपने दायित्व के प्रति अत्यंत गंभीर रहते हैं वहीं उनकी यह मानवीय कमजोरी भी दर्शाता है कि वे जरा-जरा सी बात पर भड़क जाते हैं। उनके सामने कुछ गलत हो रहा हो तो वे झल्ला जाते हैं या क्रोध में भर जाते हैं।

 

अध्यक्ष का धैर्य तब जवाब दे जाता है जब सदन के सदस्य बेकाबू हो जाते हैं और भूल जाते हैं कि वे किसी नुक्कड़ सभा में नहीं बल्कि लोकतंत्र का सबसे प्रमुख माने जाने वाले पाये निर्वाचित सदन में भाग ले रहे हैं। समाजवादी नेता मधु लिमये ने एक बार कहा था कि “सदन जन आंदोलनों का विकल्प नहीं हो सकता। वह जन सेवा तथा लोगों की तकलीफों को रखने का मंच हो सकता है। इसका उपयोग आमजन की आशाओं तथा आकांक्षाओं को प्रस्तुत करने के लिए किया जाना चाहिए।” मगर सदन में अनेक बार ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं जैसे लोग सड़क पर आपस में झगड़ रहे हों। संविधान निर्माताओं ने ऐसी परिस्थिति की शायद कल्पना नहीं की थी। पहली बार 1952 में जब जनता से सीधे निर्वाचित होकर उनके प्रतिनिधि विधान सभा में पहुंचे थे तब उन्हें लोकतंत्र की और संवैधानिक कार्यप्रणाली की कोई जानकारी नहीं थी। किन्तु उन्होंने जिस प्रकार सदन में व्यवहार किया उससे देश में लोकतंत्र की मजबूत नींव पड़ी। लेकिन आज की पीढ़ी जब अपना नया इतिहास रच रही है तब गणतंत्र के 70 वर्ष बाद सदन में जैसा व्यवहार नज़र आता है उससे किसी को गर्व की अनुभूति नहीं होती।