स्वतंत्रता दिवस पर लोकतंत्र के भविष्य की चिंता : राजेंद्र बोड़ा

 

विनय एक्सप्रेस आलेख, राजेंद्र बोड़ा. हम भारत के लोग कल देश का 78वां स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे। पिछले 77 सालों में देश ने प्रगति के अनेक सोपान चढ़े हैं। इन सोपानों पर हम सहज ही गर्व कर सकते हैं। तिजारत करने आए अंग्रेज, जो यहां के मालिक बन बैठे थे, जब वापस अपने वतन लौटे तब इस देश को कंगाल छोड़ कर गये थे। भारत ने अपने को फिर से बनाया। संविधान निर्माताओं ने न्याय और समता वाले समाज की रचना के वास्ते संसदीय लोकतंत्र वाले गणतांत्रिक राज्य की व्यवस्था दी। मगर तीन चौथाई सदी के बाद भी इस देश में लोकतन्त्र की वैसी इमारत खड़ी नहीं हो पाई है जिसमें न्याय, समानता और आपसी प्रेम का घर बसा हो। कैसी विडंबना है कि इतने लंबे समय तक, जब लोकतंत्र की जड़ें गहरी जम जानी चाहिए थी, उसके भविष्य की चिंता करनी पड़ रही है। अजीब बात यह है कि सबको अपने-अपने राजनैतिक विरोधियों से ही लोकतंत्र को खतरा नज़र आ रहा है। राज में आने की प्रतिस्पर्धा की राजनीति के लोग “प्रेम और युद्ध में सब जायज” के सिद्धांत पर चलते हुए नई डिजिटल तकनीकों के उपयोग से अपने-अपने कथाक्रम बना रहे हैं और आभासी दुनिया में प्रचार करके असली दुनिया में विभाजन रेखाएं खींच रहे हैं। लोकतान्त्रिक संस्थाओं को अयोग्य हाथों में सौंपना तथा लोकतंत्र की संविधान प्रदत्त शक्तियों को अपनी व्याख्या के अनुरूप काम में लेना अब सामान्य चलन बन गया है। लोक सेवा आयोगों के सदस्यों और विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्तियों तथा उनके कामकाज के हाल हम देख चुके हैं। लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था विधायिका में गंभीर चर्चाओं के स्थान पर हुड़दंग अधिक होता है। कार्यपालिका सामंती काल से चले आ रहे आकंठ भ्रष्टाचार की दलदल में और गहरे धंसी चली जा रही है। मुकदमों के भारी बोझ तले दबी न्यायपालिका तुरंत सुनवाई के लिए किस पर मेहरबान होगी कोई नहीं जानता। रियासतों के एकीकरण के बाद सामंती शासन से लोकतान्त्रिक व्यवस्था में पूर्ण बदलाव की मंज़िल अब भी दूर तक नज़र नहीं आती। वह इसलिये कि भारतीय समाज भौतिक रूप से भले ही आधुनिक हो गया हो, किन्तु वह शोषण, ऊंच-नीच और अधिनायकवाद के बोझ वाले सामंती सोच से मुक्त नहीं हो सका है। लोकतान्त्रिक राजनीति, जिसे सेवा का उद्यम होना था वह केवल राज करने का जरिया बन कर रह गई है। महात्मा गांधी ने राजनीति को पवित्र बनाने की कोशिश की थी। वे अपने सीने पर गोली खाने तक राजनीति में ही नहीं प्रत्येक मानव के जीवन में सत्य और अहिंसा की मर्यादा स्थापित करने में लगे रहे। उनके बाद किसी ने उस तरफ नहीं देखा। लोकतान्त्रिक व्यवस्था के केंद्र में मनुष्य होता है। सारी व्यवस्थाएं उसकी उन्नती और बहबूदी के लिए होती है। मगर आज़ादी का यह दिवस ऐसी लोकतान्त्रिक मर्यादाओं को तिरोहित होता देख रहा है।

 

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर याद आता है 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिया गया डॉ. भीमराव आंबेडकर का भाषण। उन्होंने कहा था: “अगर हम लोकतंत्र को सिर्फ दिखावे में ही नहीं, बल्कि वास्तव में भी बनाए रखना चाहते हैं, तो हमें अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों को अपनाना चाहिए… इसका मतलब है कि हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह के तरीकों को छोड़ देना चाहिए … ये तरीके अराजकता के व्याकरण के अलावा और कुछ नहीं हैं और जितनी जल्दी इन्हें छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर है।” उन्होंने दूसरी बात कही कि “अपनी स्वतंत्रता को किसी महान व्यक्ति के चरणों में न समर्पित करें, या उसे ऐसी शक्तियों को न सौंपें जो उसे उनकी संस्थाओं को नष्ट करने में सक्षम बनाती हैं… यह सावधानी भारत के मामले में … कहीं अधिक आवश्यक है क्योंकि यहां भक्ति या जिसे भक्ति का मार्ग या नायक-पूजा कहा जा सकता है, उसकी राजनीति में … भूमिका कहीं अधिक है। धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है, लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा निश्चित रूप से पतन और अंततः तानाशाही का मार्ग होती है।” उन्होंने यह भी कहा कि “हमें केवल राजनीतिक लोकतंत्र से संतुष्ट नहीं होना है बल्कि हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो।” सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ उन्होंने बताया कि “एक ऐसी जीवन पद्धति जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता दे।” आजादी के इस दिवस पर हम पाते हैं कि महात्मा गांधी और आंबेडकर की विरासत लेकर चलने का दावा करने के बावजूद यह देश ऐसा नहीं कर सका है। संसदीय लोकतंत्र में सामूहिकता पहली शर्त होती है जिसमें अल्पमत को सम्मान देने की मर्यादा होती है। मगर अब निर्वाचित प्रतिनिधि चाहे वे किसी भी वैचारिक रंग के हों “मैं” के अहंकार में बात करते हैं, सामूहिक “हम” की भाषा में नहीं। कैसी अनोखी बात है कि आंबेडकर ने जो बात 1949 में संविधान सभा में कही उस पर लोकतंत्र के इन 80 वर्षों में केवल, एक छोटे काल खंड में उभरी, एक राजनैतिक पार्टी ने अमल करने की ईमानदार कोशिश की। वह थी स्वतंत्र पार्टी। सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के सामने एक गैर-वामपंथी विपक्ष खड़ा करने के लिए 1959 में इस पार्टी का गठन किया गया था। इसके दो प्रमुख नेताओं सी. राजगोपालाचारी, जो राजाजी के नाम से अधिक जाने जाते हैं, और मीनू मसानी ने इस पार्टी के जरिए पहली बार देश में कांग्रेस के व्यावहारिक विकल्प का रोडमैप बनाया। दोनों नेताओं के बीच जबरदस्त तालमेल था। दस में से नौ मौकों पर घटनाओं की उनकी व्याख्या एक समान हुई और उनकी बनाई नीतियों और रणनीतियों से उनकी पार्टी को जबरदस्त शुरुआती सफलता मिली। राजाजी अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठकों में दोहराते रहते थे कि “हमें सत्ता के पीछे नहीं भागना चाहिए, सत्ता को हमारा पीछा करना चाहिए।” लोगों को शिक्षित करके सत्ता की तलाश करने को उन्होंने पार्टी का उद्देश्य बताया। ट्रेड यूनियनों को मोर्चों के रूप में चलाने की कोशिश नहीं करना और न ही छात्र संघों में हस्तक्षेप करना इस पार्टी की नीति थी। उसका मानना था कि क्योंकि ट्रेड यूनियनों को श्रमिकों के हितों की देखभाल के लिए बनाया गया है और राजनीतिक दलों द्वारा इनका शोषण नहीं किया जाना चाहिए। इसी प्रकार छात्रों को राजनीति में आने से पहले अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए। संसद और राज्य विधानसभाओं और परिषदों में पार्टी के निर्वाचित विधायकों को वॉक-आउट करने की अनुमति यह पार्टी नहीं देती थी। अपने 15 वर्षों के अस्तित्व के दौरान, पार्टी के सांसदों ने केवल एक बार लोकसभा में वाकआउट किया और वह भी तब जब संविधान के 17वें संशोधन पर बहस हुई थी जिसमें किसानों की जमीन के अधिग्रहण की व्यवस्था थी और पार्टी के प्रस्ताव पर अध्यक्ष द्वारा दिया गया निर्णय उन्हें स्पष्ट रूप से अनुचित लगा। एक बार तो ऐसा अवसर भी आया जब पार्टी के विधायक आंध्र विधानसभा से बहिर्गमन कर सदन के बाहर प्रदर्शन करने लगे तो पार्टी के केंद्रीय संसदीय बोर्ड ने ऐसा करने वाले विधायकों के समूह के नेता, जो राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य भी थे, को ताड़ना देते हुए ऐसा दोबारा ऐसा न करने की चेतावनी दी। उस संसदीय बोर्ड ने अपना यह निर्णय दर्ज किया: “जब विधानसभा का सत्र चल रहा हो, तब स्वतंत्र पार्टी के सभी विधायकों को विधानसभा के अंदर होना चाहिए, न कि बाहर। उन्हें बाहर खड़े होकर विरोध करने के लिए नहीं चुना गया है। वे सदन में रहने के लिए चुने गए हैं और अगर चर्चा के तहत मुद्दे पर पार्टी की स्थिति विरोध की है तो उसे वहां दर्ज कराते हैं।”

स्वतंत्र पार्टी विरोध के लिए विरोध करने में विश्वास नहीं रखती थी। उसका मानना था कि ऐसे मौके भी आ सकते हैं जब पार्टी को एक सरकारी प्रस्ताव का समर्थन करना पड़े, यदि यह राष्ट्रीय हित में हो और भले ही इसका मतलब विपक्ष में अन्य दलों के साथ रैंक तोड़ना हो। एक अवसर पर श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी ने रुपये के अवमूल्यन के लिए विपक्षी दलों का समर्थन मांगा। अर्थव्यवस्था बुरी तरह से संकट में थी और विदेशी व्यापार के अधिक होने से बड़े पैमाने पर मार पड़ रही थी। पार्टी ने कांग्रेस का समर्थन करने का फैसला किया, भले ही अन्य विपक्षी दलों ने अवमूल्यन का विरोध किया और उससे नाराज हुए, लेकिन पार्टी अपनी जमीन पर डटी रही। 1962 और 1971 के बीच कई मौकों पर ऐसा भी हुआ जब पार्टी ने अविश्‍वास प्रस्‍तावों में भाग लेने से मना कर दिया। पार्टी ने यह स्पष्ट कर किया कि अविश्वास प्रस्ताव गंभीर संसदीय हथियार होता है जिसका कम से कम इस्तेमाल किया जाना चाहिए, उसे तुच्छ नहीं बनाया जाना चाहिए। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को स्वीकार करने और पार्टी की एकता के नाम पर अपने सदस्यों को बांधे नहीं रखने का सिद्धांत भी इस पार्टी ने दिया। उसकी नीति थी कि पार्टी व्हिप का उपयोग इतना दमनकारी नहीं हो कि पार्टी के विधायक केवल वोटिंग मशीन बन कर रह जाएं। मगर आजाद भारत की दलीय राजनीति भटकती चली गई और लोकतान्त्रिक मूल्यों को मजबूती देने के बजाय इनके नेता सामंती व्यवहार में रस लेते हुए उसे आज ऐसे मुकाम पर ली आए हैं जहां सभी को लोकतंत्र के भविष्य की चिंता होने लगी हैं।