निष्काम कर्म और बड़ों के सम्मान से मिलती है खुशी और आत्मविश्वास: नंदितेश निलय
विनय एक्सप्रेस समाचार, बीकानेर। भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए उन्हें आत्मसात करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण का ‘निष्काम कर्म’ का उपदेश आज भी और हर युग में प्रासंगिक है। यह बात भारतीय संस्कृति की देशभर में अलख जगाने वाले विद्वान वक्ता लेखक एवं कथाकार नंदितेश निलय ने कही। वे शुक्रवार शाम भाटी डेजर्ट, मालू जी का धोरा, रायसर में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने अपने व्याख्यान को आत्मविश्वास, सम्मान और खुशी में बांटते हुए इन तीनों बिंदुओं पर विस्तार से सोदाहरण प्रकाश डाला।
निलय ने स्वामी विवेकानंद की अमेरिका यात्रा का प्रसंग सुनाते हुए इस ऐतिहासिक यात्रा को ‘आत्मविश्वास’ का बहुत बड़ा उदाहरण बताते हुए कहा कि जब पश्चिम में भारत की छवि गुलाम, अशिक्षित आदि की बनी हुई थी, तब स्वामी विवेकानंद ही थे, जिन्होंने अपने आप पर, भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों पर तथा संपूर्ण भारतीयता पर भरोसा किया। इतना ही नहीं, उन्होंने समूचे संसार का भी भारत के प्रति भरोसा जगाया। पश्चिम देशों को भारतीयता का भरोसा दिलाया। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति में यह आत्मविश्वास सीधा बुजुर्गों, माता—पिता और गुरुजनों के सम्मान से जुड़ा है। स्वामी विवेकानंद ने भी अमेरिका यात्रा से पहले अपनी गुरु मां से आशीर्वाद और आदेश लिया, तभी खुद पर भरोसा जगा और तमाम संसार ने देखा उन्होंने इसी भरोसे के बूते पर संसार में भारत की सकारात्मक पहचान स्थापित की।
निलय ने भगवान श्रीराम के वनवास के प्रसंग पर बात करते हुए कहा कि श्रीराम ने मां और पिता के वचन का सम्मान कर खुशी—खुशी वनगमन का निर्णय लिया। इसी ने उनमें स्वयं पर आत्मविश्वास ही नहीं जगाया, अपितु उन्हें एक साधारण राजकुमार से मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया। भगवान राम और विवेकानंद के आदर्श अपनाकर ही आज का युवा जिसका आत्मविश्वास क्षीण पर रहा है, उसे पुन: बढ़ा सकता है। विशेषकर आज जब समाज में परिवार बिखर रहे हैं, ऐसे में गुरु, माता—पिता का आदर और इससे मिला खुद पर भरोसा पाकर समाज को, परिवार को, एक सूत्र में बांधे रखा जा सकता है।
निष्काम कर्म का भाव देता है ‘खुशी’—
नंदितेश निलय ने कहा कि भारतीय संस्कृति में अपनी नहीं, बल्कि अन्यों की खुशी के लिए कर्म करना सबसे बड़ी थाती है। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का उदाहरण देते हुए कहा कि उन्होंने बांसुरी की धुन से दूसरों को खुशी दी, कभी यह अभिमान नहीं किया कि ‘मेरी बांसुरी’ से सब खुश हो रहे हैं। उन्हें भी इस बात से खुशी मिली कि । इसी तरह, स्वामी विवेकानंद की माता परिवार के लिए खाना बनाती, खुद नहीं खाकर दो रोटी बचाकर अतिथि के लिए रखती थी, और जब किसी अतिथि को भोजन कराती, तो खुशी स्वत: ही मिल जाती थी। भगवान कृष्ण और अर्जुन संवाद में भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हें अपने लिए नहीं धर्म की स्थापना कर ऐसे समाज की स्थापना करनी है, जिसमें सब खुशी और प्रेम से रह सकें। उन्होंने कोरोना काल में वैक्सीनेशन का उदाहरण भी दिया कि बजुर्गों को पहले वैक्सीन लगी, यह बड़ों के आदर का उदाहरण था, इससे आत्मविश्वास मिला और हमने विश्व के कई देशों को वैक्सीन भेजकर खुशी पाई।
अंत में उन्होंने स्वरचित कविता की ये पंक्तियां सुनाई—
मां के नि:शब्द स्वप्नों को… पिता के बढ़ते कदमों को,
कुछ थमा देख, कुछ थका देख… उनके मन को कुछ झुका देख,
देखो मैं यह प्रण कर चला…
मैं फिर कुछ आगे बढ़ चला।