आर्थिक बुनियाद को कमजोर करता राज्य का बजट : राजेंद्र बोड़ा

विनय एक्सप्रेस, समाचार, जयपुर। प्रदेश के प्रतिष्ठित वरिष्ठ पत्रकार एवं विश्लेषक श्री राजेंद्र बोड़ा ने गेस्ट एडिटर के रूप मे विनय एक्सप्रेस के सुधि पाठकों के लिए राजस्थान सरकार कि बजट की फ़िलॉसफ़ी अपना आलेख प्रस्तुत किया है इस आलेख मे श्री बोड़ा द्वारा विभिन्न बिंदुओं विमर्श किया गया है, और उधार लेकर खर्च करने की प्रवृत्ति का अर्थ व्यवस्था पर असर को टटोला गया है।

सबको खुश रखने का प्रयास करते हुए राज्य विधान सभा में प्रस्तुत किये गये घोषणाओं से भरपूर 2022-23 के बजट पर राजनीतिक पक्ष-विपक्ष में खड़े रहने वालों की आशानुरूप प्रतिक्रियाएं आ चुकी हैं। एक हफ्ते से अधिक के गुजर जाने के बाद जब उनका शोर शांत हो चला है तो अब यह वक़्त है जब राजनीति का चश्मा उतार कर इस बजट भाषण को गंभीरता से टटोला जाय। बजट भाषण कोरी घोषणाओं का पुलिंदा नहीं होता। उसे “आय व्यय का विवरण” कहा जाता है। भारत के नियंत्रक एवं महालेखाकार अपनी हर ऑडिट रिपोर्ट में यह बात लिखते हैं कि “बजट की वार्षिक कवायद सार्वजनिक संसाधनों का कुशल उपयोग करने के लिए रोडमैप का विवरण देने का एक साधन” है। इसीलिये वित्त मंत्री सदन में सरकार की आमद और खर्च का पाई-पाई का हिसाब देता है कि वह किस प्रकार व कहां से आता है और किस प्रकार तथा कहां खर्च किया जाता है। संसदीय गणतंत्र में इसकी व्यवस्था संविधान में की हुई है ताकि “हम भारत के लोग” जान सकें कि हमारे प्रतिनिधि किस प्रकार शासन की व्यवस्था चला रहे हैं।
सबसे पहले बजट भाषण पर ध्यान स्वाभाविक रूप से उसे प्रस्तुत करने वाले की टोन अर्थात लहजे पर जाएगा। इसका संकेत मुख्य मंत्री अशोक गहलोत, जो वित्त विभाग के भी प्रभारी भी हैं, ने अपना अब तक का सर्वकालिक लंबा भाषण देते हुए शुरू में ही एक शेर पढ़ते हुए दे दिया जब उन्होंने हंसी-हंसी में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की तरफ मुखातिब होते हुए कहा कि वे इस बार उनकी भाषा बोलेंगे। और उन्होंने ऐसा ही किया। राजे एक बड़े पूर्व राज घराने से आती हैं तो उनकी भाषा और लहजे में लोकतांत्रिक परंपराओं को सम्मान देते हुए भी पुरानी राजसी ठसक आ ही जाती थी जब वे बजट भाषण पढ़ती थीं। वह ठसक बीच-बीच में शेर-ओ-शायरी की नहीं होती थी बल्कि एक राजा के दंभ की होती थी। उन्होंने यह माना हुआ था कि निर्वाचित प्रतिनिधि भी नई लोकतांत्रिक व्यवस्था में “राजा” ही होता है। इसलिए उनके बजट भाषणों में “मैं” शब्द का प्रयोग बहुतायत से होतब था। उन्हीं की राह पर चलते हुए गहलोत भी अपने बजट भाषण में दर्जनों बार कह गए “मैं घोषणा करता हूं”। बजट किसी व्यक्ति का नहीं होता जिसे कोई कह सके कि मैं यह दे रहा हूं। सदन को यदि लोकतंत्र का मंदिर मानें तो वहां “मैं” कोई नहीं होता। सब हम होते हैं। मुख्यमंत्री भी हमारी सुंदर संवैधानिक व्यवस्था में “मैं” नहीं होता वह मंत्रिमंडल में “वन अमंग इक्वल” (समानों में एक) होता है। हमारी संवैधानिक शासन व्यवस्था में सामूहिक दायित्व का प्रावधान है। इसलिये इस बजट भाषण में सबसे पहले हमारा ध्यान उनके “मैं” का दंभ खींचता है। लोकतंत्र में उभर रही ये प्रवत्तियां पुराने ठकुराहट वाले सामंती युग की याद दिलाती है जिसे इतिहास कूड़ेदान में फेंक चुका है। जब कुछ दिया जाता है तो उसमें अंतर्निहित बात यह होती है कि कोई अपने पास से दे रहा है। उसमें से दे रहा है जो उसकी अपनी है। हमारी संवैधानिक संसदीय व्यवस्था में शासन निर्वाचित प्रतिनिधियों के जरिये जनता का होता है न कि किसी मुख्यमंत्री या पार्टी का। हमारे संविधान में सार्वभौम सत्ता या राज किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के पास नहीं है और न राष्ट्रपति के पास है। वह है भारत के नागरिकों के पास। इसलिए शासन का खजाना राजकोष कहलाता है। अंग्रेजी में इसे “पब्लिक एक्सचेकर” कहते हैं। राजकोष बनता है नागरिकों से प्राप्त होने वाले राजस्व तथा अन्य आय से। शासन का काम नागरिकों से राजस्व प्राप्त कर जनता की सुविधाओं पर यथोचित तरीके से खर्च करना होता है। इसिलिये अर्थशास्त्री बजट का विश्लेषण और उसकी समीक्षा उसमें अंतर्निहित प्रवत्तियों को टटोलते हुए करते हैं। लोकहितकारी शासन के बजट का दर्शन इस बात से आंका जाएगा कि वह जनता के पैसे का किस प्रकार किफायत से उपयोग करता है और आय तथा व्यय का किस प्रकार प्रबंधन करता है जिससे सबका सहज विकास संभव हो। यह बजट भाषण यह दर्शाता है कि बावजूद भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की बार बार की चेतावनियों के राज्य सरकार को अपने राजस्व घाटे की कोई चिंता नहीं है और वह ‘ऋणम् कृत्वा घृतम पीवेत’ को अपना मंत्र मां कर उधार लेकर काम चला रही है। बजट के आंकड़े खुद अपनी कहानी कहते हैं। अगले वर्ष के बजट में 23 हजार 488 करोड़ 56 लाख रुपये का राजस्व घाटा बताया गया है और पूंजी खाते या कहें उधारी खाते में लगभग इतना ही 23 हजार 607 करोड़ 95 लाख रुपये का आधिक्य बताया गया है। अर्थात सरकार अपनी आमद से जो ज्यादा खर्च कर रही है वह उधार ले कर कर रही है। सच्चाई तो यह भी है कि जितने घाटे का बजट अनुमान लगाया जाता है वह साल पूरा होते बढ़ जाता है। पिछले साल का ही देंखें। इन्हीं मुख्यमंत्री ने पिछले साल बजट प्रस्तुत करते हुए 23 हजार 750 करोड़ 4 लाख रूपयों के राजस्व घाटे का अनुमान लगाया था। इस बजट में जब पिछला हिसाब दिया तो पता चला कि वास्तव में वह घाटा बढ़ कर 35 हजार 689 करोड़ 36 लाख रुपये पंहुच गया है। इसके बाद भी अपने बजट भाषण में उन्होंने राज्य सरकार के वित्तीय प्रबंधन की तारीफ की। राज्य का वित्तीय प्रबंधन और बजट तब गड़बड़ाते हैं जब राजनेता राज्य की आर्थिक बुनियाद मजबूत करके लोगों को स्थाई राहत देने की बजाय उसे चुनावी राजनीति का औजार बना लेते हैं। पिछले लंबे समय से ऐसा चल रहा है।
पहला जेंडर बजट (2012-13) और पहला पेपरलैस बजट (2021-22) पेश करने के लिए अपनी ही पीठ थपथपाते हुए मुख्यमंत्री ने इस बार पहले “कृषि बजट” के नाम पर जो पेश किया वह मूल बजट में कृषि वाले पैरे को अलग से पढ़ने के अलावा कुछ नहीं था। पहले किसी विषय पर किसी वित्तीय वर्ष में अधिक ध्यान देना होता तो वह बजट उस विषय को समर्पित करके किया जाता था जैसे स्वास्थ्य को समर्पित बजट या शिक्षा को समर्पित बजट। मगर इस बार दिल्ली के आसपास चली किसानी राजनीति के चलते कृषकों की सहानुभूति पाने के लिए समर्पित बजट को अलग से कृषि बजट के नाम का मुलम्मा चढ़ा दिया गया। जादूगरी यही की गई है कि कृषि वाला पैरा अलग से कृषि बजट का नाम देकर पढ़ दिया गया है। कृषि अर्थशास्त्रियों को बड़ी बेताबी से इंतज़ार था इस कृषि बजट का। वे समझना चाहते थे कि कृषि और किसानों की बातें करने वाले नीति निर्माता किस प्रकार कृषि को राज्य की समूची अर्थव्यवस्था में देखते हैं और ऐसा क्या करते हैं जिससे कृषि पर आश्रित आबादी की तकदीर सुधर सके। कृषि का अलग बजट उसी तर्ज पर होता जिस प्रकार पहले रेल्वे बजट होता था जो मूल बजट से एक दिन पहले अलग से संसद में प्रस्तुत होता था तो जरूर कहा जा सकता था कि राज्य सरकार कृषि का अलग बजट लेकर आई है।

इस बजट में एक ऐसी घोषणा की गई है जो अन्य सभी घोषणाओं पर भारी है। शासनरूढ़ दल को यह लगने लगा है कि जैसे कोई अलादीन का चिराग घिस दिया गया है जबकि यह घोषणा कार्यपालिका के उस तंत्र को साधने के लिए की गई है जो पहले ही बड़े दुलार से रखा जाता है। यह घोषणा है पुरानी पेंशन योजना को पिछली तारीख से फिर लागू करना। यह घोषणा करते हुए मुख्यमंत्री बड़ी सलोनी अदा से कहने की चेष्टा की कि जैसे उन्हें मालूम ही नहीं कि किन परिस्थितियों में एक लंबे विमर्श के बाद एक जनवरी 2004 से नई पेंशन योजना क्यों लागू हुई। शायद किसी को याद नहीं कि एक समय ऐसा भी आया था कि किसी कर्मचारी के रिटायर होने पर मिलने वाले परिलाभ देने के भी सरकार के पास पैसे नहीं होते थे और उन्हें सरकारी बॉन्ड दे कर भुगतान टाला जाता था। मुख्यमंत्री बजट भाषण में कहते हैं “पेंशन के लगातार बढ़ते वित्तीय भार को कम करने की दृष्टि से ऐसा कदम उठाया गया होगा”। पुरानी पेंशन व्यवस्था फिर लाते हुए उन्होंने जहा कि “नवीन पेंशन स्कीम के कारण अभी से ही कार्मिकों में सेवानिवृत्ति के उपरांत वृद्धावस्था में जीवन यापन के लिए भारी असुरक्षा का भाव उत्पन्न हो गया है…सरकारी शासन से जुड़े कर्मचारी भविष्य के प्रति सुरक्षित महसूस करें, तभी वे सेवाकाल में सुशासन के लिए अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं”। यह भी कहा गया कि “सरकारी कर्मचारियों को रिटायर होने के बाद आत्मसम्मान से जीने के लिए ये बहुत ज़रूरी था”। तो क्या निजी क्षेत्र के कर्मचारियों या असंगठित मजदूरों को एक उम्र के बाद आत्मसम्मान से जीने का अधिकार नहीं है? वास्तव में तो वे बहुसंख्यक लोग हैं जिन्हें सहारा चाहिए। दूसरी तरफ सरकारी कर्मियों को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने से सरकार का लगातार कतराना भी जवाब मांगता है। इस सत्र में भी जवाबदेही कानून बनाने का विधेयक लाने में सरकार असफल रही है। वर्ष 2018 में राज्य विधान सभा चुनावों के लिए जारी अपने चुनाव घोषणापत्र में कांग्रेस ने यह वादा किया गया था कि उसकी सरकार बनती है तो जवाबदेही का कानून लाया जाएगा। इसे 10 जुलाई 2019 को परिवर्तित बजट प्रस्तुत करते हुए मुख्यमंत्री ने फिर दोहराया था कि लोकसेवकों की जवाबदेही के लिए ‘सार्वजनिक जवाबदेही कानून’ लाया जायेगा जो समस्त विभागों, प्राधिकरणों व निगमों पर लागू होगा। मगर अभी तो सरकारी कर्मियों को खुश रखना है। इस बजट के लिए सरकार अपने सीने पर कितने ही तमगे लगा ले, पर इस बजट में न्याय और समानता का कोई आर्थिक दर्शन नज़र नहीं आता।