राजस्थानी पत्रिकाएं क्रांति और जागरूकता का सशक्त माध्यम हैं : रामस्वरूप किसान

विनय एक्सप्रेस समाचार, जोधपुर। राजस्थानी भाषा के ख्यातनाम कथाकार, साहित्यकार रामस्वरूप किसान ने कहा कि राजस्थानी भाषा की पत्रिकाएँ क्रांति और जागरुकता लाने का सशक्त माध्यम हैं। श्री किसान रविवार को जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर के राजस्थानी विभाग द्वारा ऑनलाईन फेसबुक लाइव गुमेज व्याख्यान श्रृंखला अंतर्गत विषय विशेषज्ञ के रूप में अपने विचार प्रस्तुत कर रहे थे।

कार्यक्रम की संयोजक एवं राजस्थानी विभाग की विभागाध्यक्ष डॉ. मीनाक्षी बोराणा ने बताया कि ऑन लाईन राजस्थानी भाषा व्याख्यानमाला देश-विदेश में उत्तरोत्तर लोकप्रिय होती जा रही है। इससे राजस्थानी साहित्य की समृद्धता व खुशबू से आमजन लाभान्वित हो रहे हैं।

राजस्थानी पत्र-पत्रिकाओं की दशा और दिशा पर बोलते हुए रामस्वरूप ने कहा कि राजस्थानी भाषा में बहुत सी पत्रिकाएं निकलती हैं और पहले भी अनेक पत्रिकाएं निकलती रही हैं। ऐसा नहीं है कि राजस्थानी में पत्रिकाओं का अभाव रहा है, लेकिन आर्थिक, संपादकीय क्षमता व प्रतिबद्धता मिलकर दशा तय करती हैं और पत्रिका की दिशा पाठक व जनता की पक्षधरता से निश्चित होती है। हम कह सकते हैं कि दशा और दिशा एक दूसरे पर निर्भर है।

जनोन्मुखी होनी चाहिएं पत्रिकाएं

किसान ने कहा कि बताया कि किसी भी पत्रिका के प्रकाशन का एक बड़ा उद्देश्य जनता को जागरूक करने व जिजीविषा जागृत करना है, चाहे वह साहित्यिक हो अथवा गैर साहित्यिक हो।

उन्होंने कहा कि आजादी के आंदोलन के दौरान जनता को जागृत करके अंग्रेजों की खिलाफत करने के लिए अग्रसर कई पत्रिकाएं निकलती थी। पत्रिकाएं समाज में फैली हुई बुराइयों को दूर करने, शोषण, अंधविश्वास, रूढ़ियों के खिलाफ लड़ने, जनता को उनके कर्त्तव्यों और अधिकारों के प्रति जागरूक करने वाली होनी चाहिएं।

जनता के हित में संघर्ष है पत्रिका

उन्होंने साहित्यिक पत्रिकाओं पर चर्चा करते हुए कहा कि इनमें समकालीन परिस्थितियों का संपूर्ण विवेचन पाठक तक पहुंचाने की क्षमता होनी चाहिए। वही साहित्यिक पत्रिका अपने उद्देश्य पर खरी उतरती है, जो जनता के पक्ष में खड़ी होती है। सत्ता और पूंजीवाद के खिलाफ लड़ती है। पत्रिका एक संघर्ष है और इस संघर्ष में पत्रिकाओं को कमजोर वर्ग के साथ खड़ा होना ही पत्रिका का धर्म है। संपादक को तय करना होता है कि कौन सी रचना जनता के हित में है, उसे प्रकाशित करने के लिए संपादक को कठोर भी होना पड़ता है। वही पत्रिका ज्यादा चलेगी जो पत्रिका पाठक के साथ खड़ी है, जनता की बात करती है।

राजस्थानी पत्रिकाओं की समृद्ध परंपरा

रामस्वरूप ने राजस्थानी पत्रिकाओं की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का जिक्र करते हुए बताया कि परंपरा पत्रिका के 100 अंक निकल चुके हैं, बिणजारौ पत्रिका 43 वर्षों, 42 साल से माणक पत्रिका, 64 सालों से वरदा पत्रिका, 44 सालों से राजस्थली पत्रिका, जागती जोत  50 साल से लगातार निकल रही है।

उन्होनें बताया कि 1960 में विजय दान देथा और कोमल कोठारी ने वाणी नाम की पत्रिका निकाली, यह दोनों लोक से निकले हुए थे और उन्होंने अपनी पत्रिका में लोक को जिंदा रखने का प्रयास किया। मरुवाणी पत्रिका, राजस्थान भारती, अपरंच, गोरबंद, राजस्थानी रत्नाकर, आगूंच, ओळखाण, हरावल, हेळौ, पणिहारी, शोधमाल, मरुधरा, नेगचार, हथाई, कथेसर आदि पत्रिकाओं के बारे में विस्तार से बताया।

नए लेखकों को भी मिल रहे अवसर

इसी तरह और भी कई पत्रिकाएं हैं जो राजस्थानी भाषा के विकास में उसे आगे बढ़ाने में सहयोगी रही हैं। इन पत्रिकाओं के प्रकाशन से भाषा का एक बड़ा वर्ग खड़ा हो गया है। इसमें कई नए-नए लेखकों को भी अवसर प्रदान किया गया है।

उन्होंने कहा कि पत्रकारिता का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष संपादकीय होता है, जिससे होकर ही रचना पाठक तक पहुंचती है। संपादक का एक आलोचक होना बहुत जरूरी होता है, जो अच्छी, बुरी और उपयोगी रचना का भेद कर सके। पत्रिकाएं निकालना एक बड़ा ही जोखिम भरा काम है।

उन्होंने राजस्थानी पत्रिकाओं के सम्पादकों नारायण सिंह भाटी, नागराज शर्मा, पदम मेहता, मनोहर शर्मा, श्याम महर्षि, रावत सारस्वत, बद्री प्रसाद साकरिया,  चेतन स्वामी, गोवर्धन सिंह शेखावत, भगवती प्रसाद शर्मा,  मीठेश निर्माेही, कल्याण सिंह शेखावत, सचिन जोशी, किशोर कल्पनाकांत, मधुकर गौड़, नीरज दइया, भरत ओला, रामस्वरूप किसान डॉ. सत्यनारायण सोनी  गौतम अरोड़ा, तेज सिंह जोधा, विक्रम सिंह भाटी, उदयवीर सिंह शर्मा आदि का उल्लेख करते हुए कहा कि यह ऐसे संपादक हैं जिन्होंने अपने संपादन में राजस्थानी भाषा की विभिन्न विधाओं को जिनमें कहानियां, कविताएं, संस्कृति अनुवाद, आलेख, गीत, साहित्यकारों आदि सभी कलेवर को समेटते हुए प्रकाशन किया और आम पाठक के सामने राजस्थानी भाषा को खड़ा कर दिया।

देश के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े विद्वजन

इस ऑनलाईन व्याख्यानमाला में देश भर से बड़ी संख्या में साहित्यकार, विद्वान और शोधार्थी, विद्यार्थी जुडे रहे। जिनमें डॉ. सत्यनारायण सोनी, प्रमोद, मीनाक्षी पारीक, लक्ष्मीकांत व्यास, रणजीत सिंह पंवार, निर्मला राठौड़, अमित गहलोत, ओम नागर, ओम प्रकाश किसान, अशोक विश्नोई, आनन्द कुमार, राधेश्याम स्वामी, तरुण दाधीच, गौरीशंकर नेमिवाल, सतवीर सिंह, सीमा राठौड़ आदि प्रमुख हैं।